नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वृषभानु बाबा-सगाई
मैंने नन्दरायजी से सम्मति ली, पर वे तो बहुत अधिक सीधे हैं। वे कहते हैं- 'नीलमणि आपका है। अब आप जो भी उचित लगे, करो। मुझे इसमें कोई आपत्ति भला क्यों होगी।' नीलमणि मेरा तो है; किंतु मैं उस पर विधिपूर्वक अपना स्वत्व बना लेना चाहता हूँ। महर्षि गर्गाचार्य समाज के नेत्रों से परोक्ष ही इस सम्बन्ध को सृष्टिकर्त्ता द्वारा सम्पन्न कराने की बात कह गये। मुझे सगाई भी समाज के नेत्रों से परोक्ष रखने में आपत्ति नहीं है। नन्दनन्दन की सुरक्षा पहिले आवश्यक है और कंस कितना क्रूर है, कितना निर्दय है, यह तो अब सब समझ गये हैं। मेरी पाटलदल-मृदुल अत्यन्त भोली कन्या- मेरे हृदय में इसके सम्बन्ध को इतने उत्साह से सम्पन्न करने की बात थी कि किसी सम्राट की सुता का विवाह भी उतने वैभव से पूर्ण नहीं हो पाता; किंतु अब तो ऐसे शुभ अवसर की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। सगाई तो अब अपने अन्त:पुर से-अपने लोगों से भी गुप्त ही रखकर करनी है और व्रजपति ने मेरी यह बात मान ली है कि गोकुल में भी यह संस्कार गुप्त ही रहेगा। कुछ तो करना चाहिये मुझे। पुत्री की सगाई करूँ और वह भी नीलमणि को बिना कुछ दिये? महर्षि शाण्डिल्य ने मेरे लिए मार्ग निकाल दिया। संस्कार पहिले- उपहार अन्य अवसर पर तब दिया जाय जब वह किसी को चौंकावे नहीं। संस्कार पहिले और उपहार पीछे क्यों? मैंने नीलमणि के जन्मदिन पर, वर्षगाँठ के अवसर पर उपहार भेजे तो नन्दराय ही चौंके। उन्होंने ही आपत्ति की- 'इस अवसर पर इतने अपार उपहार?' 'आज आप किसी की भेंट अस्वीकार नहीं कर सकतें।' मैं ठीक समझता था कि व्रजपति मेरा तर्क चुपचात स्वीकार कर लेंगे- 'नीलसुन्दर व्रज का युवराज है। यह सबका है। अत: इसकी जन्मगाँठ पर उपहार देने की साध किसके मन में नहीं होगी। सबने अपनी पूरी शक्ति इस नन्हें सौन्दर्य-घन को सत्कृत करने में लगायी है। आप आज किसी का कोई उपहार अस्वीकार नहीं कर सकते। आज तो आपको इस सम्बन्ध में मौन रहना है।' |
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