महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
49.मंत्रणा
जुए के खेल में सम्पति दांव पर रखना और हार जाना नासमझी ही है, लेकिन खेल में जान-बूझकर जो गंवाया गया है उस पर फिर से गंवाने वाले का अधिकार नहीं हो सकता। इसके अलावा एक ही वंश के लोगों का आपस में लड़-मरना भी बलराम को अच्छा न लगा। उनकी राय थी कि युद्ध अनर्थ की जड़ होता है। उससे कभी भलाई नहीं हो सकती। लेकिन बलराम की ही तरह सब नहीं सोचते थे। उनकी इन बातों से यदुकुल का वीर और पांडवों का हितैषी सात्यकि आग-बबूला हो उठा। उससे न रहा गया। उठकर कहने लगा- "बलराम जी की बातें मुझे जरा भी न्यायोचित नहीं मालूम होतीं। अपनी बात सिद्ध करने के लिये लोग वाक्-चातुरी से काम लेते हैं। हर किसी बात का सुंदरता से समर्थन किया जा सकता है और अन्याय को आसानी से न्याय सिद्ध किया जा सकता है। लेकिन जो स्पष्ट अन्याय है वह कदापि न्याय नहीं हो सकता, न अधर्म ही धर्म हो सकता है। बलराम जी की बातों का मैं जोरों से विरोध करता हूँ। आप सब सज्जन जानते हैं कि श्रीकृष्ण और बलराम जी भाई-भाई हैं। फिर भी इन दोनों के विचारों में बहुत भारी अंतर है। लेकिन इनमें अचरज की कोई बात नहीं है। एक ही कोख से शूर भी जन्म लेता है और कायर भी। एक ही पेड़ की शाखाओं में से कोई तो फलों से लदी होती है और कोई बिलकुल निकम्मी होती है। अत: भाई-भाई होते हुए भी श्रीकृष्ण ने न्याय की और बलराम ने अन्याय की बात कही तो इसमें आश्चर्य ही क्या है! मेरी राय में जो कोई भी युधिष्ठिर को दोषी बतायेगा वह दुर्योधन से डरनेवाला ही होगा। मेरी इन कड़वी बातों के लिये आप सज्जनगण मुझे क्षमा करेंगे। बात यह है कि युधिष्ठिर तो पांसे का खेल जानते भी नहीं थे और न इनकी खेलने की इच्छा ही थी। पर इनको आग्रह करके जुआ खेलने पर विवश किया गया और खेल में कपट से हराया गया था। फिर भी इनकी सज्जनता ही थी जो प्रण निभाकर खेल की शर्तें पूरी कीं। और अब इनको यह सलाह दी जा रही है कि दुर्योधन के आगे झुककर भीख मांगें। युधिष्ठिर भिखमंगे नहीं हैं। उन्हें किसी के आगे झुकने की आवश्यकता ही क्या है? शर्त के अनुसार पांडव बारह बरस का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा करके लौट आए हैं। दुर्योधन और उनके साथी जो ये चिल्ल-पुकार मचा रहे हैं कि बारह महीने पूरे होने से पहले ही पांडवों को उन्होंने पहचान लिया है, सरासर झूठ है और बिल्कुल अन्याय है। मैं इस अन्याय को नहीं सहूंगा और इसका बदला लेकर ही रहूंगा। युद्ध में इन अधर्मियों की ऐसी खबर लूंगा कि या तो वे युधिष्ठिर के पांव पकड़कर क्षमा-याचना करेंगे या मेरे हाथों मारे जाकर मृत्यु के मुंह पड़ेंगे। धर्म-युद्ध का फल अनीति कैसे हो सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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