महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
44. अज्ञातवास
संकोच के मारे रानी सुदेष्णा से भी कुछ कह न सकी। हां, उसने इतनी बात अवश्य फैला रखी थी मेरे पति गन्धर्व हैं। जो भी मुझे बुरी नजर से देखने या छेड़ने की कोशिश करेगा उसकी मेरे पति अच्छी तरह खबर लेंगे-गुप्त रुप से हत्या तक कर देंगे। द्रौपदी के सतीत्व, शील स्वभाव और तेज को देखकर सबने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया था; किन्तु धूर्त कीचक को तो गंधर्वों का भी डर न था। वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। कितनी ही बार उसने द्रौपदी से छेड़-छाड़ की। जब किसी तरह काम बनता न दीखा तो उसने अपनी बहन सुदेष्णा का सहारा लिया। वह गिड़गिड़ाकर बोला- "बहन, जब से मेरी नजर तुम्हारी सैरंध्री पर पड़ी है, मुझे न दिन को चैन हैं, न रात को नींद। मुझ पर दया करके किसी न किसी उपाय से तुम उसे मेरी इच्छा के अनुकूल बना दो तो बड़ा उपकार हो।" सुदेष्णा ने उसे बहुतेरा समझाया; पर कीचक अपने हठ से न टला। अन्त में विवश होकर सुदेष्णा ने अनमने मन से कीचक की सहायता करना स्वीकार कर लिया। भाई और बहिन दोनों ने मिलकर द्रौपदी को फंसाने का कुचक्र रच लिया। इस कुमंत्रणा के अनुसार एक रात कीचक के भवन में बड़े भोज का आयोजन किया गया और मदिरा तैयार की गई। रानी सुदेष्णा ने द्रौपदी को एक सुन्दर सोने का कलश देते हुए कहा- "भैया के यहाँ बड़ी अच्छी किस्म की मदिरा तैयार की गई है। वहाँ जाओ और यह कलश भरकर ले आओ।" सुनकर द्रौपदी का कलेजा धड़क उठा। बोली- "इस अंधेरी रात में मैं कीचक के यहाँ अकेली कैसे जाऊं? महारानी, मुझे डर लगता है। आपकी कितनी ही और दासियां है। उनमें से किसी को भेज दीजिए।" इस तरह द्रौपदी ने बड़ी मिन्नतें कीं; किन्तु सुदेष्णा न मानी। क्रोध करती हुई बोली- "तुम्हीं को जाना पड़ेगा। यही मेरी आज्ञा है। और किसी को नहीं भेजा जा सकता। जाओ।" विवश होकर द्रौपदी को जाना पड़ा। कीचक ने वैसा ही व्यवहार किया, मिन्नतें कीं और बहुत तंग भी किया। पर द्रौपदी ने कीचक की प्रार्थना को ठुकरा दिया और बोली-"सेनापति, आप राजकुल के हैं और मैं एक नीच नौकरानी। फिर आप मुझे कैसे चाहने लगे? यह अधर्म करने पर क्यों तुले हुए हैं? मैं पराई ब्याहता स्त्री हूँ। इस कारण आपसे प्रार्थना है कि सावधान ही रहें। यदि आपने मेरा स्पर्श भी किया तो आपका सर्वनाश हो जाएगा। ध्यान रहे, मेरे रक्षक गंधर्व लोग हैं। वे क्रोध में आ गये तो आपके प्राण ही लेकर छोड़ेंगे।" अनुनय विनय और आग्रह से काम न बनते देख दुष्ट कीचक ने बलपूर्वक अपनी इच्छा पूरी करनी चाही और द्रौपदी का हाथ पकड़कर खींचा। द्रौपदी ने मधु कलश वहीं पटक दिया और झटका मारकर कीचक से हाथ छुड़ा लिया और राजसभा की ओर भागने लगी। गुस्से से भरा कीचक भी उसके पीछे भागा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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