नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. महर्षि दुर्वासा–तृणावर्त त्राण
समय नहीं था। इतनी भयावह सम्भावना थी कि वह मन में ठीक आवे, इतना भी समय नहीं था। जिस हृदय में आती, वह उसी क्षण फट जाता; किंतु सम्भावना समझने को समय नहीं मिला-मिल सकता नहीं था। योगमाया इतना प्रमाद नहीं कर सकतीं। वे प्रयोजन वश प्रमाद प्रदान तो करती हैं जीव को; किंतु स्वयं प्रमाद उनका स्पर्श नहीं करता। गोपियों ने नन्दनभवन से निकलते-निकलते भारी धमाका सुना। उनके सामने ही विशाल असुर आकाश से शिला पर गिरा। वे सब दौड़ गयीं उधर और पहिली दृष्टि में उन्हें अरुण-पंकज चरण उछालते नन्दनन्दन दीखे। इनकी प्रसन्न किलकारी श्रवणों में पड़ी। प्राण जाते-जाते लौटे- 'नीलमणि सकुशल है!' 'श्याम सकुशल है!' सबके कण्ठों से एक साथ हर्षध्वनि निकली। असुर के रक्त से भीगी धरा को, फटे-चिथे असुर के शरीर को कौन देखे? अतुला ने दौड़कर उठाया शिशु को और लिए हुए दौड़ती-पुकारती आयीं- 'जीजी! नीलमणि सकुशल है! यह मिल गया है!' रोहिणी देवी ने सुना और आतुरपूर्वक उठीं। नन्दरानी की मूर्छा टूटी जब इनके अंक में देवरानी ने धर दिया इनके लाल को। नेत्र खोले, देखा, देखती रहीं और उठाकर धीरे से हृदय से लगाकर देवरानी को लौटाते बोलीं-'अतुला! मैं अभागिनी इसे रख नहीं सकती। मुझे यह अपना उदरजात ही आज भारी लगने लगा था। यह तुम सबके प्रारब्ध से लौटा है। यह तुम्हारा है- तुम्हरा ही है!' 'मेरा तो है ही!' महाभागा नन्दन की पत्नी ने सोल्लास अंक में ले लिया है और अब हास्य आया है इनके मुख पर-'लेकिन जीजी! तुम उठो। अभी महर्षि शाण्डिल्य आवेंगे। मैं इसे असुर के ऊपर से उठा लायी हूँ, ग्रह-शान्ति करनी होगी। इसे शुद्ध करना होगा ब्राह्मण-मुनिगण आवेंगे और अपने भी सब दो क्षण में आते ही हैं। तुम ऐसी धूलि-भरी कैसे इसे अंक में लेकर सबके सामने बैठोगी। उठो और शीघ्रता करो! स्नान करके वस्त्र बदल डालो।' 'तू ऐसी ही भूतनी बनी रहेगी?' अब यशोदाजी के मुख पर हास्य आया है देवरानी की दशा देखकर। सब तो एक जैसी हो रही हैं। गृह-आँगन सब धूलि-तृणों से अटा पड़ा है। सब स्वच्छ होना है। गोपों को अब कुछ पता नहीं। अब वे तृणावर्त के शरीर के समीप एकत्र होने लगे हैं। इसका अग्नि-संस्कार करेंगे। सर्वेश के ये अपने जन और असुर तो इनके परमधाम पहुँच गया। ये अनन्त दयाधाम- मैंने इनके स्पर्श से उसे आसुरी योनि से मुक्त होने का वर दिया था, इन्होंने उसे अपना परमपद प्रदान कर दिया। |
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