- महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 22 के अनुसार जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
जरासन्ध द्वारा श्रीकृष्ण को सत्यता का प्रमाण देना
जरासंध ने कहा - श्रीकृष्ण! मैं युद्ध में जीते बिना किन्हीं राजाओं को कैद करके यहाँ नहीं लाता हूँ। यहाँ कौन ऐसा शत्रु राजा है, जो दूसरों से अजेय होने पर भी मेरे द्वारा जीत न लिया गया हो ? श्रीकृष्ण! क्षत्रिय के लिये तो यह धर्मानुकूल जीविका बतायी गयी है कि वह पराक्रम करके शत्रु को अपने वश में लाकर फिर उसके साथ मनमाना बर्ताव करे। श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय के व्रत को सदा याद रखता हुआ देवता को बलि देने के लिये उपहार के रूप में लाये हुए इन राजाओं को आज तुम्हारे भय से कैसे छोड़ सकता हूँ ?[1]
जरासंध का युद्ध के लिये स्वीकृती
तुम्हारी सेना मेरी व्यूहरचनायुक्त सेना के साथ लड़ ले अथवा तुम में से कोई एक मुझ अकेले के साथ युद्ध करे अथवा मैं अकेला ही तुम में से दो या तीनों के साथ बारी-बारी से या एक ही साथ युद्ध कर सकता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा कहकर भयानक कर्म करने वाले उन तीनों वीरों के साथ युद्ध की इच्छा रखकर राजा जरासंध ने अपने पुत्र सहदेव के राज्याभिषेक की आज्ञा दे दी। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मगधनरेश ने वह युद्ध उपस्थित होने पर अपने सेनापति कौशिश और चित्रसेन का स्मरण किया (जो उस समय जीवित नहीं थे)। राजन्! ये वे ही थे, जिन के नाम पहले तुम से हंस और डिम्भक बताये हैं। मनुष्य लोक के सभी पुरुष उनके प्रति बड़े आदर भाव रखते थे। जनमेजय! मनस्वी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी, वसुदेव पुत्र एवं बलराम के छोटे भाई भगवान् मधुसूदन ने दिव्य दृष्टि से स्मरण करके यह जान लिया था कि सिंह के पराक्रमी, बलवानों में श्रेष्ठ और भयानक पुरुषार्थ प्रकट करने वाला यह राजा जरासंध युद्ध में दूसरे वीर का भाग (वध्य) नियत किया गया है। यदुवंशियों में से किसी के हाथ से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती, अतः ब्रह्मा जी के आदेश की रक्षा करने के लिये उन्होंने स्वयं उसे मारने की इच्छा नहीं की। [2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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