- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 90वें अध्याय में 'संजय द्वारा धृतराष्ट्र से इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों के वध' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
शकुनि का पांडवो पर आक्रमण
संजय कहते है- राजन्! जिस समय बड़े-बड़े वीरों का विनाश करने वाला भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय सुबलपुत्र श्रीमान शकुनि ने पाण्डवों पर आक्रमण किया। नरेश्वर! इसी प्रकार शत्रुवीरों का विनाश करने वाले सात्वतवंशी कृतवर्मा ने उस संग्राम में पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। तत्पश्चात् काम्बोज देश के अच्छे घोडे़, दरियाई घोड़े, मही, सिन्धु, वनायु, आरट्ट तथा पर्वतीय प्रान्तों में होने वाले सुन्दर घोडे़- इन सबकी बहुत बड़ी सेना द्वारा सब ओर से घिरा हुआ शत्रुओं को संताप देने वाला पाण्डुनन्दन अर्जुन का बलवान पुत्र इरावान हर्ष में भरकर रणभूमि में कौरवों की उस सेना पर चढ़ आया। उसके साथ तित्तिर प्रदेश केशीघ्रगामी घोडे़ भी मौजदू थे, जो वायु के समान वेगशाली थे। वे सबके सब सोने के आभूषणों से विभूषित थे। उनके शरीरों में कवच बँधे हुए थे और उन्हें सुन्दर साज-बाज से सजाया गया था। वे सभी घोड़े अच्छी जाति के तथा वायु के तुल्य शीघ्रगामी थे। अर्जुन का पराक्रमी पुत्र श्रीमान इरावान नागराज कौरव्य की पु़त्री के गर्भ से बुद्धिमान अर्जुन द्वारा उत्पन्न किया गया था।
इरावान का इंद्रलोक जाना
नागराज की वह पुत्री संतानहीन थी। उसके मनोनीत पति को[2] गरुड़ ने मार डाला था, जिससे वह अत्यन्तदीन एवं दयनीय हो रही थी। ऐरावतवंशी कौरव्य नाग ने उसे अर्जुन को अर्पित किया और अर्जुन ने काम के अधीन हुई उस नाग कन्या को भार्या रूप में ग्रहण किया था। इस प्रकार अर्जुन पुत्र उत्पन्न हुआ था। वह सदा मातृकुल में रहा। वह नागलोक में ही माता द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया और सब प्रकार से वहीं उसकी रक्षा की गयी थी। उस बालक के किसी दुरात्मा वयोवृद्ध सम्बन्धी ने अर्जुन के प्रति द्वेष होने के कारण इनके उस पुत्र को त्याग दिया था। इरावान भी रूपवान, बलवान, गुणवान और सत्य पराक्रमी था, बड़े होने पर जब उसने सुना कि मेरे पिता अर्जुन इस समय इन्द्रलोक में गये हुए है, तब वह शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचा।
इरावान तथा अर्जुन का वार्तालाप
उस सत्यपराक्रमी महाबाहु वीर ने अपने पिता के पास पहुँचकर शान्तभाव से उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक हाथ जोड़ महामना अर्जुन के समक्ष अपना परिचय देते हुए बोला- प्रभो! आपका कल्याण हो। मैं आपका ही पुत्र इरावान हूँ। उसकी माता के साथ अर्जुन का जो समागम हुआ था, वह सब उसने निवेदन किया। पाण्डुनन्दन अर्जुन को वह वृत्तान्त यथार्थरूप से स्मरण हो आया। गुणों में अपने ही समान उस पुत्र को हृदय से लगाकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे देवराज इंद्र के भवन में ले गये। नरेश्वर! भरतनन्दन! उन दिनों देवलोक में अर्जुन ने प्रेमपूर्वक अपने महाबाहु पुत्र को अपना सब कार्य बताते हुए कहा-शक्तिशाली पुत्र! युद्ध के अवसर पर तुम हम लोगों को सहायता देना। तब बहुत अच्छा कहकर इरावान चला गया और अब युद्ध के अवसर पर यहाँ आया है। नरेश्वर! इरावान के साथ इच्छानुसार रूप-रंग और वेग वाले बहुत से घोड़े मौजूद थे। वे सब के सब सोने के शिरोभूषण धारण करने वाले तथा मन के समान वेगशाली थे। उनके रंग अनेक प्रकार के थे। राजन्! वे घोड़े महासागर में उड़ने वाले हंसों के समान सहसा उछले और आपके मन के समान वेगशाली अश्वों के समुदाय में पहुँचकर छाती से छाती तथा नासिका से एक दूसरे की नासिका पर चोट करने लगे। वे सहसा वेगपूर्वक टकराकर पृथ्वी पर गिरते थे।[1] वे अश्वों के समुदाय परस्पर टकराकर जब गिरते थे, उस समय गरुड़ के वेग पूर्वक उतरने के समान भयंकर शब्द सुनायी देता था।
राजन्! इसी प्रकार आपके और पाण्डवों के घुड़सवार युद्ध में एक दूसरे से भिड़कर आपस में भयंकर मार-काट करते थे। इस प्रकार अत्यन्त भयानक घमासान युद्ध छिड़ जाने पर दोनों पक्षों के अश्वसमूह चारों और नष्ट हो गये। शूरवीर योद्धाओं के पास बाण समाप्त हो गये। उनके घोडे़ मारे गये थे। वे परिश्रम से पीड़ित हो परस्पर घात प्रतिघात करते हुए विनष्ट हो गये। भारत! इस प्रकार जब घुड़सवारों की सेना नष्ट हो गयी और उसका अल्पभाग ही अवशिष्ट रह गया; उस अवस्था में शकुनि के शूरवीर भाई युद्ध के मुहाने पर निकले। जिनका स्पर्श वायु वेग के समान दुःसह था, जो वेग में वायु की समानता करते थे, ऐसे बल सम्पन्न नयी अवस्था वाले उत्तम घोड़ों पर सवार हो गज, गवाक्ष, वृषभ, चर्मवान, आर्जव और शुक ये छः बलवान वीर अपनी विशाल सेना से बाहर निकले। यद्यपि शकुनि ने उन्हें मना किया अन्याय महाबली योद्धाओं ने भी उन्हें रोका, तथापि वे युद्धकुशल, महाबली रौद्र रूपधारी क्षत्रिय कवच आदि से सुसज्जित हो युद्ध के लिये निकल पड़े। महाबाहो! उस समय उन युद्धदुर्मद गान्धारदेशीय वीरों ने विजय अथवा स्वर्ग की अभिलाषा लेकर विशाल सेना के साथ पाण्डव-वाहिनी के परम दुर्जयव्यूह का भेदन करके हर्ष और उत्साह से परिपूर्ण हो उसके भीतर प्रवेश किया।
इरावान और शकुनि के भाइयों के बीच युद्ध
तब उन्हें सेना के भीतर प्रविष्ट हुआ देख पराक्रमी इरावान ने भी समरभूमि में भयंकर अस्त्र-शस्त्र वाले अपने विचित्र योद्धाओं से कहा- वीरों! तुम सब लोग संग्राम में ऐसी नीति बना लो, जिससे दुर्योधन के ये समस्त योद्धा अपने सेवकों और सवारियों सहित मार डाले जाये। तब बहुत अच्छा ऐसा कहकर इरावान के समस्त सैनिकों ने उन छहों वीरों के सैन्य समूह को, जो समराडगण में दूसरों के लिये दुर्जय था, मार डाला। अपनी सेना को समरभूमि में शत्रु की सेना द्वारा मार गिरायी गई देख सुबल के सभी पुत्र इसे सह न सके। उन्होंने इरावान पर धावा करके उसे सब ओर से घेर लिया। वे छहों शूर तीखे प्रासों से मारते और एक दूसरे को बढ़ावा देते हुए इरावान पर टूट पड़े तथा उसे अत्यन्त व्याकुल करने लगे। उन महामनस्वी वीरों के तीखे प्रासो से क्षत-विक्षत होकर इरावान बहते हुए रक्त से नहा उठा। अंगों से घायल हुए हाथी के समान व्याकुल हो गया। राजन्! वह अकेला था और उस पर प्रहार करने वालों की संख्या बहुत थी। वह आगे-पीछे और अगल-बगल में अत्यन्त घायल हो गया था; तो भी धैर्य के कारण व्यथित नहीं हुआ। अब इरावान को भी बड़ा क्रोध हुआ। शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले उस वीर ने समर में तीखे बाणों द्वारा बींधकर उन सबको मूर्च्छित कर दिया। शत्रुओं का दमन करने वाले इरावान अपने शरीर से वेगपूर्वक प्रासो को निकालकर उन्हीं के द्वारा रणभूमि में सुबल पुत्रों पर प्रहार किया। तत्पश्चात् तीखी तलवार और ढाल निकालकर इरावान ने युद्ध में सुबल पुत्रों को मार डालने की इच्छा से तुरंत उनके ऊपर पैदल ही धावा किया। तदनन्तर सुबल पुत्रों में प्राण शक्ति पुनः लौट आयी। अतः वे सब के सब सचेत होने पर पुनः क्रोध में भर गये और इरावान पर दौड़े।[3]
इरावान और शकुनि के भाइयों का वध
इरावान भी बल के अभिमान में उन्मत्त हो अपने हाथों की फुर्ती दिखाता हुआ खड़ग के द्वारा उन समस्त सुबल पुत्रों का सामना करने लगा। वह अकेला बड़ी फुर्ती से पैतरे बदल रहा था और वे सभी सुबल पुत्र शीघ्रगामी घोड़ाद्वारा विचर रहे थे, तो भी वे अपने में उसकी अपेक्षा कोई विशेषता न ला सके। तदनन्तर इरावान को भूमि पर स्थित देख वे सभी सुबल पुत्र युद्ध में उसे पुनः भलीभाँति घेरकर बन्दी बनाने की तैयारी करने लगे। तब शत्रुसूदन इरावान ने निकट आने पर कभी दाहिने और कभी बायें हाथ से तलवार घुमाकर उसके द्वारा शत्रुओं के अंगों को छिन्न-भिन्न कर दिया। उन सबके आयुधों और भूषणभूषित भुजाओं को भी उसने काट डाला। इस प्रकार अंग-अंग कट जाने से वे प्राणशून्य हो मरकर धरती पर गिर पड़े। महाराज! वृषभ बहुत घायल हो गया था तो भी वीरों का उच्छेद करने वाले उस महाभयंकर संग्राम से उसने अपने आपको किसी प्रकार मुक्त कर लिया।[4]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-19
- ↑ यहाँ मूल में 'पतौ पाठ' हैं। व्याकरण के अनुशार 'पति शब्द-का सप्तमी के एक वचन में 'पत्यौ' रूप होता है। अत: जहाँ 'पत्यौ' पद का प्रयोग है, वहाँ मुख्य 'पति' वाचक पति शब्द नहीं है।'पतिरि वाचकतिति पति:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार आचार क्किंबत 'पति' शब्द का यहाँ प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ -पतिसदृश। तात्पर्य यह है कि जिसके लिये कन्या का वाग्दान किया गया है, वह मनोनीत पति ही विवाह के पहले तक 'पतितुल्य' है। विवाह के बाद साक्षात् 'पति' होता है। इस नाग कन्या के मनोनीत पति को गरुड़ ने मार डाला था, इसलिये 'नष्टे मृते प्रव्रजिते' इस पाराशर वचन के अनुशार उसका अर्जुन के साथ सम्बंध हुआ और धर्मात्मा अर्जुन ने उसे पत्नि रूप से ग्रहण किया।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 20-41
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 42-58
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