महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
101.सेर भर आटा
पर पुत्र-वधू ने आग्रह करके कहा- "पिता जी, आप मेरे स्वामी के पिता हैं, गुरु के गुरु हैं और ईश्वर के ईश्वर हैं। मेरा आटा आपको स्वीकार करना ही होगा। मेरा यह शरीर आपकी सेवा ही के लिये है। आप मेरा आटा लेकर मुझे सद्गति प्राप्त करने के योग्य बनाइये। यह सुनकर ब्राह्मण के हर्ष की सीमा न रही। मुक्त कंठ वह बहू को आशीर्वाद देते हुए बोले- "सुशीला बेटी! पति की इच्छा पर चलने वाली सती! तुम्हें सारे सौभाग्य प्राप्त हों। बहू के हिस्से का भी आटा अतिथि के आगे रख दिया गया। उसे खाकर अतिथि तृप्त हो गये और बहुत प्रसन्न हुए। वह बोले- "आपने अपनी शक्ति के अनुकूल पवित्र हृदय से जो दान दिया उसे पाकर मैं बहुत संतुष्ट हुआ। आपका दिया दान अद्भुत है- निराला है। वह देखिये, देवता भी फूल बरसा रहे हैं। देवर्षिगण, देवता, गंधर्व आदि सब आपके दर्शन करने के लिये अपने अनुचरों के साथ विमानों में बैठ आकाश में इकट्ठे हो रहे हैं। आप अपनी पत्नी, पुत्र और बहू समेत अभी स्वर्ग सिधारेंगे। आपने जो दान दिया उससे आपको ही नहीं बल्कि आपके पूर्वजों को भी स्वर्गवास का भाग्य प्राप्त होगा। प्रायः देखा जाता है कि भूख से विवेक का नाश हो जाता है और धार्मिकता का विचार जाता रहता है। बड़े-बड़े ज्ञानी भी भूख के मारे अस्थिर हो उठते हैं, धीरज गंवा देते हैं। आपने तो भूखे रहते हुए भी पुत्र-प्रेम से धर्म को ही अधिक समझा। सैकड़ों राजसूय-यज्ञ, अश्वमेध-यज्ञ भी आपके इस दान की बराबरी नहीं कर सकेंगे। आपका दान उससे कहीं बढ़कर है। वह देखिये, आपके लिये देवीय विमान तैयार खड़ा है। चलिये, स्वर्ग सिधारिये।" इतना कहकर विष्णु रूप अतिथिदेव अन्तर्धान हो गये। अनाज चुनने की वृत्ति रखने वाले ब्राह्मण के स्वर्ग सिधारने का यह हाल सुनाकर नेवले ने कहा- "विप्रगण, उन ब्राह्मण के दान में दिये गये ज्वार के आटे की सुवास सूंघते-सूंघते मेरा सिर सुनहरा बन गया। इसके बाद जहाँ आटा परोसा गया था, उस स्थान में भी मैं खूब लोटा। आटे के जो कण उस स्थान पर बिखरे हुए थे, उनके लग जाने के कारण मेरे शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा बनकर जगमगा उठा। इस पर मुझे अभिलाषा हुई कि शरीर का बाकी हिस्सा भी स्वर्णिम बन जाये तो क्या ही अच्छा हो? इसी अभिलाषा से मैं तपोवनों और यज्ञशालाओं आदि की धूल में लोटता रहा। इतने में सुना कि यशस्वी धर्मराज ने महायज्ञ किया है। सुनते ही खुशी-खुशी यहाँ दौड़ आया। मुझे आशा थी कि यहाँ बाकी शरीर भी सुनहरा बन जायेगा। परन्तु मेरी आशा पूरी न हुई। इसीलिये कहता हूँ कि आपका यह महान यज्ञ उस ब्राह्मण के सेर भर आटे की बराबरी नहीं कर सकता।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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