महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
19.जरासंध
यह सुनकर वीर अर्जुन बोल उठा- "यदि हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी कोई साहस का काम न करें और साधारण लोगों की भाँति जीवन व्यतीत करके संसार से कूच कर जायें, तो धिक्कार है हमें और हमारे जीवन को। हजार गुणों से विभूषित होने पर भी जो क्षत्रिय प्रयत्नशील नहीं होता, पराक्रमी नहीं होता और किसी काम को करने से हिचकिचाता रहता है, कीर्ति उससे मुँह मोड़कर चली जाती है। जीत उसी की होती है जो उत्साही हो। जो काम करने योग्य है, उसमें जी-जान से जो लग जाता है, उसी की जय होती है। सब साधनों के होने पर भी जिसमें जोश न हो, हौसला न हो, संभव है उसे हार खानी पड़े। अक्सर वे ही लोग हार खाते हैं जो अपनी शक्ति को आप नहीं जानते और जिनमें उत्साह और प्रयत्नशीलता का अभाव होता है। जिस काम को करने की हममें सामर्थ्य है, भाई युधिष्ठिर क्यों समझते हैं कि उसे हम न कर सकेंगे? अभी हम उस अवस्था में थोड़े ही पहुँचे हैं जो गेरुए वस्त्र पहनकर जंगल में चले जायें और निःस्पृहता का व्रत रक्खें? अभी तो अपने कुल और जाति की परम्परा के अनुरूप हमारे लिये यही उचित होगा कि क्षत्रियोचित साहस से काम लें।"
अन्त में सब इसी निश्चय पर पहुँचे कि जरासंध का वध करना आवश्यक ही नहीं, बल्कि कर्तव्य है। धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी इस बात को मान लिया और भाइयों को इसके लिये अनुमति दे दी। उपर्युक्त संवाद इस बात का सबूत है कि पुराने समय में भी आजकल के समान ही राजनेता तर्क और बुद्धि की कसौटी पर कसकर ही किसी प्रश्न के बारे में निर्णय लिया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज