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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
अध्याय 239 में शुक ने अध्यात्म विद्या के विस्तृत वर्णन का प्रश्न किया। इस प्रकरण में आई हुई अध्यात्म सामग्री का जैसे कोई अन्त ही नहीं। व्यास जी ने शुकदेव से अध्यात्म विद्या का पुनः विस्तार से वर्णन कहा। जैसे समुद्र में हिलोर पर हिलोर उठती हैं ऐसे ही पंचभूतों में उनके गुणों की लहरें उठती रहती हैं। शब्द, श्रोत, आकाश आदि का अनन्त क्षेत्र है। ऐसे ही वायु, स्पर्श, रस और जल, तेज, रूप और अग्नि, घ्राण, गन्ध और पृथ्वी इनकी ऊर्मियों का इस जीवन में क्या कभी कोई अन्त होता है? इनके ऊपर और इनसे भी सूक्ष्म मन और बुद्धि की लहरियों का कहीं कोई अन्त इनमें तीन गुणों की सूक्ष्म पड़ी हुई हैं। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का यह जाल बहुत ही सूक्ष्म और अपरिमित है। देहधारियों को इन्द्रियग्राम इस ओर से उस ओर तरंगित करता है।[1] भावों का धरातल मन है। इन्द्रिय से अध्यवसाय का निश्चय किया जाता है। हृदय प्रिय और अप्रिय के अनुभव का साधन है। कामगोचर इन्द्रियों से आत्म का दर्शन नहीं होता। इन्द्रियरश्मियों को जब मन से रोक लिया जाता है, तो घर में रखे हुए दीपक की भाँति आत्मा का प्रकाश दिखाई पड़ता है।[2] अध्याय 241 में प्रवृत्ति और निवृत्ति का मार्ग कहा गया है। अध्याय 242 परम धर्म का कथन है। इस प्रकार चौबीस अध्यायों में शुकदेव के प्रश्न और व्यास के उत्तर के रूप में प्रज्ञादर्शन और अध्यात्म विद्या का वर्णन किया गया है। यह अध्यात्म योग और आस्तिक दर्शन का बहुत ही अच्छा और सारगर्भित उपदेश है। इसमें गीता और उपनिषदों का सार पाया जाता है। अध्याय 247 से 250 तक प्रजापति तथा मृत्यु के संवाद के रूप में मृत्यु की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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