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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 24
प्रज्ञा का अर्थ
प्राचीन वैदिक युग में एक दर्शन अहोरात्रवाद था, जिसमें ज्योति और तम या दिन और रात के प्रतीक से सृष्टि की व्याख्या की जाती थी। इसे ही कालवाद भी कहते थे। उसी शब्दावली का आश्रय लेते हुए यहाँ संयमी और असंयमी की व्याख्या की गई है। इसके अनुसार अध्यात्म-तत्त्व दिन है और भौतिक जगत के विषय-भोग रात्रि हैं। प्रायः प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार अध्यात्म-जगत में सोते रहते हैं। वह उनकी रात है, पर संयमी वहाँ जागता है। विषयों के जगत में असंयमी बड़े चोकस रहते हैं। संयमी उसकी उपेक्षा करता है। निर्मम, निरहंकार आदि चित्त-वृत्तियों को अपना कर इन्द्रिय संयम के द्वारा जिस बुद्धि योग या प्रज्ञा का ज्ञानवादी प्राप्त करते हैं, वही कर्म योग का भी लक्ष्य है। ब्राह्मी स्थिति या ब्रह्म निर्वाण की प्राप्ति में दोनों एक मत हैं। इसके लिए एक दृष्टि इस अध्याय में रखी गई है। अब उसकी अधिक व्याख्या तीसरे अध्याय में आती है। हम देख चुके हैं कि दूसरे अध्याय में जिसका नाम ही सांख्य योग है, गीताकार ने सांख्य मार्ग के बुद्धि योग की अनेक युक्तियों को खुले जी से अपनाया है, किन्तु कर्मों को छोड़ देने में उन्हें अभिरुचि नहीं है, वरन् उनका जो निजी दृष्टिकोण था, जिसे हमने लगभग उन्हीं के शब्दों में प्रज्ञा दर्शन कहा है, उसके साथ या उसके घाट पर सांख्य के बुद्धि-योग की उक्तियों के दोषों का ऐसी बारीकी से मेल कराया गया है कि श्रोता का मन आश्वस्त हो जाता है। जीवन में मन या बुद्धि की तैयारी के लिए जो सांख्यवादी कहते हैं, वही मांग तो प्रज्ञावादी की भी है। इतनी बात भूमिका के रूप में स्पष्ट कर लेने के बाद अब अगले अध्याय में गीताकार को खुलकर बताना चाहिए था कि कर्म योग का अपना स्वरूप क्या है। वस्तुतः तीसरे अध्याय का यही विषय है, और इसी के अनुसार उसका नाम है ‘कर्मयोग अध्याय’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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