भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
धृतराष्ट्र को महाभारत में दिष्टवादी या भाग्यवादी दर्शन का मानने वाला कहा है। पुरुषार्थ और कर्म में उनकी आस्था न थी। जो है, वह निर्विघ्न वैसा ही बना रहे, यहीं तक उनके विचार की दौड़ थी। फिर दुर्योधन का मोह उनके मन में ऐसा भरा था कि नए संकल्प पर पानी फेर देता था। पाण्डवों को वारणावत भेजने का कुचक्र, जब दुर्योधन ने सामने रखा तो धृतराष्ट्र ने पहले तो कुछ पैंतरा बदला, पर फिर स्पष्ट स्वीकार किया, “बात तो कुछ ऐसी ही मेरे मन में है, पर खुलकर कह नहीं सकता”।[1] ऐसे ही अर्जुन और सुभद्रा के विवाह का समाचार सुनकर पहले उन्होंने प्रसन्नता प्रकट की, पर दुर्योधन और कर्ण के चांपने पर कहा, “जैसा तुम कहते हो, सोचता तो मैं भी वही हूं, पर विदुर के सामने खुलकर अपनी बात कह नहीं सकता”।[2] पाण्डवों के साथ द्यूत खेलने का प्रस्ताव चलने पर धृतराष्ट्र के सही विचारों ने एक बार उछाला लिया, पर भाग्यवाद की गोली ने उन्हें सुला दिया और उन्होंने यही कहा, “ब्रह्मा ने जो रच दिया है, सारा जगत वैसी ही चेष्टा में लगा हुआ है”।[3] जब युधिष्ठिर द्यूत में हारने लगे, तो धृतराष्ट्र प्रसन्न होकर बार-बार पूछते हैं, “क्या सचमुच जीत लिया?” और वह अपनी मुद्रा छिपा न सके।[4] यों तो महाभारत के लेखक ने युधिष्ठिर, दुर्योधन आदि के चरित्रों को भी बहुत ही तराशे हुए खरे शब्दों में ढाला है, पर धृतराष्ट्र के मनोभावों को व्यक्त करने के लिए जैसे चुटीले शब्द चुने गए हैं, वैसे औरों के लिए नहीं। पाण्डवों को दूसरी बार द्यूत-क्रिया में लगाने का प्रस्ताव जब दुर्योधन ने किया, तब भी उसको बरजने के स्थान में धृतराष्ट्र से यही कहते बना, “हां-हां, अभी पाण्डव रास्ते में होंगे, उन्हें जल्दी लौटा लाओ”।[5] विदुर का हितवचन भी धृतराष्ट्र के मन में उल्टे विष उत्पन्न करता था, यहाँ तक कि एक बार तो विदुर को उन्होंने अपने यहाँ से निकाल ही दिया था‚ “मैं पाण्डवों के लिए अपने पुत्रों को कैसे छोड़ दूं? मैं तो तुम्हारा इतना आदर करता हूं, पर तुम मुझसे सदा टेढ़ी बातें ही करते हो। हे विदुर! तुम्हारा जहाँ मन हो, चले जाओ”।[6] पर बूढ़े धृतराष्ट्र में भी सचाई की कोर थी, जिससे वह भी हमारी सहानुभूति के पात्र हैं। विदुर को भली-बुरी सुनाने के बाद वह स्वयं बेहोश होकर गिर जाते हैं और कहते हैं, “हाय! मेरा भाई विदुर कहाँ गया? उसे जल्दी लाओ।” चरित्र-चित्रण में लेखक ने बहुत ही सचाई से रंग भरा है। अवसर पड़ने पर शकुनि-जैसे कपटी के मुंह से भी कहलाया गया है, “पाण्डव सत्यवादी हैं। वे शर्तों का पालन करेंगे और धृतराष्ट्र के बुलाने पर भी तेरह वर्ष का वनवास पूरा किये बिना वे न लौटेंगे।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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