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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 93
तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति।।[1] दुर्योधन की बात सुनकर कृष्ण ने क्षुब्ध होकर कहा, “ज्ञात होता है, भारी युद्ध होगा। तुम वीर गति पाने के लिए तैयार रहो। तुम्हारा जो यह विचार है कि सारा दोष पाण्डवों का है, तुम्हारा कुछ नहीं, तो तुमने ही पाण्डवों की राज्यश्री से जलकर जुए का प्रपंच कराया। उसमें तुमने सदाचार का पालन किया। तुम्हारे सिवाय और कौन अपने कुटुंब की स्त्री को सभा के बीच में लाकर उसे इस प्रकार अपमानित करेगा, जिस प्रकार तुमने द्रौपदी को किया? तुमने पाण्डवों को बाल्यावस्था में ही उनकी माता के साथ लाक्षागृह में जला डालने का षड्यंत्र किया। उन पर विष के प्रयोग भी तुमने किये। तुम्हारे मन में सदा कपट रहा। फिर कैसे तुम्हारा अपराध नहीं है? सबने तुम्हें शान्ति के लिए समझाया, पर तुमने एक की न सुनी।” जब कृष्ण इस प्रवाह में बह रहे थे, दुःशासन ने बीच में ही बात काटकर दुर्योधन से कहा, “हे राजन, मुझे तो लगता है कि यदि तुमने पाण्डवों से सन्धि न कर ली तो कौरव लोग तुम्हें बांधकर युधिष्ठिर को सौंप देंगे। भीष्म, द्रोण और हमारे पिता तुम्हें, कर्ण को और मुझे अवश्य पाण्डवों को दे डालेंगे।” दुःशासन का निशाना ठीक बैठा। उसकी बात कान में पड़ते ही दुर्योधन महासर्प की तरह फुंकारने लगा और सभा की मर्यादा तोड़कर जाने के लिए उठ पड़ा। उसके भाई भी उठ गये। उसके जाने के बाद भीष्म ने किसी तरह स्थिति को सम्भाला और कहा, “जो धर्म और अर्थ से मुंह मोड़कर क्रोध करता है, उसके शत्रु उस पर हंसते हैं। दुर्योधन इस समय क्रोध और लोभ के वश में है। ज्ञात होता है कि सारा क्षत्रिय दल काल-पक्व हो चुका है।” इस अवसर पर कृष्ण ने एक बात कही, “दुर्योधन का व्यवहार सब कुरुवृद्धों का अपमान है। आप लोग क्या बलपूर्वक उसे मर्यादा में नहीं रख सकते? मेरी राय है कि जैसे कंस को मारकर उग्रसेन को राज्य दिया गया, वैसे ही कुल की रक्षा के लिए दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन को बान्धकर पाण्डवों को सौंप दिया जाय।”[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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