विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 44-45
वेदों के कण्ठाग्र करने वालों की संख्या उस समय बढ़ गई थी। जैसा पतंजलि ने महाभाष्य के आरम्भ में लिखा है- लोगों की ऐसी वृत्ति हो गई थी कि इधर वेद पढ़ा और उधर ज्ञान बघारने लगते थे। पूर्व काल में ऐसी बात न थी। सनत्सुजात का कथन है कि जैसे यत्नपूर्वक मूंज के भीतर से सींक निकाली जाती है, वैसे ही भौतिक देह के भीतर निगूढ़ आत्मत्त्व का साक्षात दर्शन किया जाता है। भौतिक शरीर तो माता-पिता से मिल जाता है, किन्तु सत्य के संसार में नया जन्म केवल आचार्य की कृपा से ही होता है। अतएव आचार्य के ज्ञानगर्भ में प्रविष्ट होकर ब्रह्मचर्य का आचरण आवश्यक है। जो इस प्रकार ज्ञानसाधना करते हैं वे ही सच्चे पद के अधिकारी हैं और उन्हें जीवनयोग सिद्ध होता है। इसके उपरान्त यह बताया गया है कि गुरु कौन है और शिष्य को किस प्रकार उसके समीप जीवन बिताना चाहिए। जो तपश्चर्या द्वारा शरीर की चर्बी जला कर उसे झकझोर डालता है[1] वही जीवन में अपनी मूर्खता को जीत पाता है और अमृत की प्राप्ति से मृत्यु को हटा पाता है। जीवन में ब्रह्म को कभी-न-कभी जानना ही होगा, दूसरा मार्ग या गति नहीं।[2] उस समय लोग ध्यान में नीला, काला, लाल, श्वेत रंग देखने का ढोंग रचते थे और उसे ब्रह्मदर्शन कहते थे। धृतराष्ट्र ने प्रश्न किया कि क्या सचमुच अमृत अक्षर ब्रह्मत्व का कोई रंग है। सनत्सुजात ने स्पष्ट कहा कि सफ़ेद, लाल, काले, नीले रंगों की कोई कल्पना ब्रह्म में नहीं है। वह पृथ्वी में, अन्तरिक्ष में, समुद्र के जल में, आकाश में, ताप में, मेघ और विद्युत में, चन्द्र और सूर्य में, ऋक, यजु, साम और अथर्व में, बृहत और रथन्तर में किसी के रूप में नहीं है और सब उसी के रूप हैं अणु और महान रूपों में उसी की सत्ता है। वही विश्व की प्रतिष्ठा और अमृत है। उस ब्रह्म की ही संज्ञा यश या विश्व का सुन्दर पूर्णतम स्वरूप है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ य आश्येत् पाटयेच्चापि राजन् सर्वं शरीरं तपसा तप्यमानः, 44।16
- ↑ नान्यः पन्था अयनाय विद्यते
- ↑ 44।19-23
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज