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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 42
वस्तुतः संसार के दुःखवादी दार्शनिकों ने मृत्यु को सबसे भारी दुःख माना। फिर इस मृत्यु-दुःख से छूटने की मीमांसा कई प्रकार से होने लगी। ब्रह्मचर्य सूक्त में वैदिक दृष्टि कोण का उल्लेख हुआ है कि ब्रह्मचर्य और तप से देवों ने मृत्यु को जीत लिया था।[1] अमृत के विषय में कर्मवादियों का मत भी दिया गया है। ये यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म मानने वाले कर्म काण्डी पूर्वमीमांसक जान पड़ते हैं, जो यज्ञ कर्मों द्वारा स्वर्गादि की प्राप्ति को ही मृत्यु पर विजय मानते थे। मृत्यु कुछ है ही नहीं, यह दृष्टि कोण ज्ञानवादी निवृत्तिमार्गी आचार्यों का विदित होता है। सनातन ब्रह्मचारी सनत्कुमार कपिल आदि उनमें अग्रणी थे। यदि मृत्यु की पृथक सत्ता होती तो ये सनातन आयुष्य का उपभोग न कर सकते। सनत्सुजात ने अमृतत्त्व और अप्रमाद को पर्यायवाची मानते हुए यज्ञादि बाह्यकारणों से मृत्यु को हटाकर अमृत प्राप्त करने का निराकरण किया है। वे उसे एक नैतिक प्रश्न के रूप में देखते हैं, जैसे बुद्ध ने मीमांसकों के कर्मवाद को बाह्य हेतुओं से छुड़ाकर आंतरिक नैतिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया था। क्रोध, प्रमाद, मोह ये मनुष्य के भीतर से ही उत्पन्न होते हैं और इन्हीं का नाम मृत्यु है। यदि पितृलोक में धर्मराज यम को मृत्यु का देवता मान लिया जाय तो वे भी स्वयं निरपेक्ष ही है। अतएव अच्छों के लिए अच्छे और बुरों के लिए बुरे, यही उनका व्यवहार है।[2] क्रोध, प्रमाद, मोह-रूपी असत्कर्मों का चक्र ही मनुष्य को जन्म-मरण के बन्धन में डालता है। यही कर्मोदय होने का कर्मफल है। जो विषयों में गुण देखता हुआ, अबुद्ध रहकर, उत्पन्न होते हुए विषयों के हनन में अनादर से काम लेता है, वह मृत्यु रूप हो जाता है। मृत्यु के समान तीव्रता से वह उन विषयों का भोग करता है। वह जो विद्वान है, वह कामों का हनन कर लेता है।[3] कामना और तृष्णा के पीछे भागने वाला मनुष्य उन्हीं के साथ नष्ट हो जाता है। जो कुछ यहाँ रजोगुण है, मनुष्य कर्मों को उठाकर स्वयं उसे उत्पन्न कर लेता है। तम और प्रकाश के अभाव का ही नाम नरक है। जैसे कोई मुंह उठाए हुए गड्ढे की ओर जाता हो, ऐसे ही मनुष्य उस नरक की ओर दौड़ रहे हैं। विषयों में गुण का चिंतन, यह पहली मृत्यु है। फिर काम, क्रोध उसे पकड़कर मारते हैं। मूर्खों की मृत्यु यही है। जो धीर हैं, वे धैर्य से इस मृत्युरूप काम, क्रोध के पार हो जाते हैं। क्रोध, लोभ और मोह का अन्तरात्मा में प्रवेश, यही शरीरस्थ मृत्यु है और बाहर कोई मृत्यु नहीं है, जो बाघ की तरह बछड़े को उठा ले जाये। इस प्रकार जो मृत्यु की उत्पत्ति को जान लेता है, वह ज्ञान का आश्रय लेकर मृत्यु से नहीं डरता। उसके लिए फिर मृत्यु उसी तरह नहीं रहती, जैसे मृत्यु के चंगुल में पड़ा हुआ मनुष्य नहीं रहता। यह ज्ञानमार्गी सांख्यविदों का मत था, जो कहते थे कि मृत्यु की वास्तविकता कुछ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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