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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 33-34
बुद्धिमान व्यक्ति अपनी प्रज्ञा में किन्हीं ऐसे कामों को सोचता है, जो आरम्भ में छोटे हैं, पर फल बहुत देते हैं और फिर तुरन्त उन्हें करने लगता है, उनमें विघ्न नहीं करता। जो सबको ऋजु भाव से देखकर अपनी जगह बैठे-बैठे ही चुपचाप आंख से सबको पी जाता है, ऐसे राजा को प्रजा चाहती है। मन, वाणी, कर्म और दृष्टि से जो लोक को प्रसन्न करता है, उसे ही लोक चाहता है। व्याघ्र से जैसे पशु डरते हैं, वैसे ही यदि राजा से उसकी प्रजा डरे तो समुद्रान्त राज्य भी किस काम का? वायु जैसे मेघों को छिटका देती है वैसे ही राजा अनीति से बाप-दादों का राज्य खो देता है। पहले से सज्जन जिस धर्म-मार्ग पर चलते आए हैं, उस पर चलने वाले राजा के लिए धरती धन-धान्य से पूर्ण हो जाती है। पराए राष्ट्र को छिन्न-भिन्न करने में जो व्यर्थ समय जाता है उसे यदि स्वराष्ट्र के प्रति पालन में लगाया जाय तो क्या कहना! ए एव यत्नः कर्त्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने।।[1] राज्य लक्ष्मी का मूल धर्म है। गाएं गन्ध से, ब्राह्मण वेद से, राजा चरों से और इतर जन आखों से वस्तु का ज्ञान करते हैं। सिल्ला बीन कर खाने वाला जैसे धीर भाव से उसे बीनता है, ऐसे ही जहाँ-तहाँ से बुद्धिमानों के सुकर्म और वचनों का संग्रह राजाओं को करना चाहिए। कडुवी गाय को दुहने में महाक्लेश होता है, पर सहेज गाय के लिए यत्न नहीं करना पड़ता। जो बिना तपाये झुक जाता है, उसे कौन तपाता है? जो स्वयं झुका हुआ काष्ठ है, उसे झुकाना नहीं पड़ता। इन उपमाओं को मन में रख कर जो अपने से बलवान है, उसके सामने झुक जाना चाहिए, क्योंकि बलवान के सामने झुकना ऐसा ही है, जैसे इन्द्र को प्रणाम करनाः पशुओं का बन्धु मेघ है। राजाओं के बन्धु उनके मित्र होते हैं। स्त्रियों के बन्धु पति और ब्राह्मणों के बन्धु वेद हैं। धर्म की रक्षा सत्य से, विद्या की नियमपूर्वक अध्ययन से, सौन्दर्य की साज-श्रृंगार से और कुल की आचार से होती है। मेरी समझ से आचार हीन व्यक्ति की कुलीनता का कोई अर्थ नहीं। अन्त्य वर्ण जन्म लेने पर भी सदाचार से ही व्यक्ति की विशेषता होती है। पराये के धन, रूप, बल, कुल, सुख और सौभाग्य में ईर्ष्या की वृत्ति अन्तहीन रोग है। विद्यामद, धनमद, कुलमद, मूढ़ों के लिए तो ये मद हैं, पर सज्जनों के लिए ये ही संयम के हेतु बन जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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