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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 29-31
संजय ने कृष्ण और पाण्डवों के आशय को भली प्रकार समझ लिया। युधिष्ठिर ने अत्यन्त विनीत वचन कहकर संजय को विदा किया। युधिष्ठिर द्वारा कहे हुए कुशल-प्रश्नों वाला यह अध्याय[1] अत्यन्त उदात्त शैली में लिया गया है, जिसका कुछ नमूना इस प्रकार हैः “हे संजय, स्वस्ति भाव से जाओ। तुमने हमारा कुछ अप्रिय नहीं किया। वे और हम दोनों तुम्हें शुद्ध आत्मा मानते हैं। तुम कल्याण-वाक, शीलवान और दृष्टि मान हो। तुम्हें सच बात कहते हुए मोह या क्रोध नहीं होता। तुम्हारी धर्मवती, अर्थवती, प्रियवती वाणी से मैं परिचित हूँ। तुम या विदुर, दो ही दूत के रूप में यहाँ आने योग्य थे।” “हे संजय, यहाँ से जाकर वहाँ उन योग्य ब्राह्मणों से हमारा प्रणाम कहना, जो महाकुल में उत्पन्न हैं, जो वैदिक चरणों से सम्बन्धित हैं, जो धर्मसूत्रों से व्याख्यात धर्मों से युक्त हैं और जो स्वाध्यायी हैं। वनों में रहने वाले तपस्वी भिक्षुओं से भी प्रणाम कहना। वहाँ के वृद्धों से एवं राजा के पुरोहित, आचार्य ऋत्विजों से मिलकर मेरी ओर से कुशल कहना। उन आचार्य द्रोण से, जिन्होंने वेद-ज्ञान के लिए ब्रह्मचर्य धारण किया और चतुष्पात अस्त्र-विद्या का विधान किया एवं उनके तेजस्वी पुत्र अश्वत्थामा से भी कुशल कहना। महारथी कृपाचार्य, प्रज्ञाशील भीष्म, स्थविर राजा धृतराष्ट्र के चरणों में मेरा प्रणाम कहना। धृतराष्ट्र के उस ज्येष्ठ पुत्र सुयोधन से भी मेरी ओर से कुशल पूछना। कौरवों के घरों में कुरुवृद्ध हैं और भी दुःशासन, विदुर, चित्रसेन, सोमदत्त आदि से मेरी ओर से कुशल पूछना। कौरवों के घरों में जो कुरुवृद्ध हैं और जो उनके पुत्र पौत्र-भ्राता आदि युवा हैं, उनसे भी कुशल कहना। वसाति, शाल्व, केकय, अम्बष्ठ और त्रिगर्त के, प्राच्य उदीच्य, दक्षिणात्य, प्रतीच्य एवं पर्वतीय राजाओं से भी, जो कौरवों का पक्ष लेकर आए हों, कुशल पूछना। हाथियों के महामात्र, रथी, अश्वसादी महामात्र, इनसे अनामय कहना। अमात्यों से, दौवारिकों से, सेनाध्यक्षों से और आय-व्यय गणना विभाग में काम करने वाले युक्त नामक अधिकारियों से एवं उनके अध्यक्षों से मेरी ओर से कुशल कहना। गान्धारराज शकुनि और सूर्यपुत्र कर्ण से एवं अगाधबुद्धि विदुर से भी कुशल पूछना। राजकुल की उन वृद्धा स्त्रियों से, जो माता पदवी-धारिणी हैं और अन्य वृद्धा स्त्रियों से मेरा अभिवादन कहना और पूछना कि उनकी वृत्ति तो निर्विघ्न है। और हमारे परिवार की भी स्त्रियां या जो अन्य बहुएं या पटरानी के दूसरी प्रजावती संज्ञक रानियां या कन्याएं हों, उनसे भी कुशल कहना। वे सब कल्याणी, अलंकृता, वस्त्रवती और भोगवती बनकर रहे।” इसके आगे युधिष्ठिर का मन राजकुल और राज्य पर आश्रित अन्य अनेक प्रकार के व्यक्तियों पर जाता है और वे उन्हें भी अपना कुशल भेजते हैं। इनमें वेश की स्त्रियां दास, दासीपुत्र कुब्ज, खंज, अंगहीन, स्थविर आदि के विषय में युधिष्ठिर ने जानना चाहा कि पुराने समय से जो उनकी वृत्ति बंधी थी, वह सुरक्षित थी या नहीं। यह भारतीय राजशास्त्र का सिद्धान्त था कि अनाथ, कृपण, अंधे, लूले, लंगड़े और जो दस्तकारी करने वाले बूढ़े हो गए हों, उन्हें राज्य की ओर से पालन के लिए वृत्ति दी जाय। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मनुस्मृति और शुक्रनीति में इसका उल्लेख है। समुद्रगुप्त ने प्रयाग प्रशस्ति में भी इसका उल्लेख किया है। अन्त में युधिष्ठिर ने दुर्योधन के लिए इतना विशेष संदेश भेजा, “हे सुयोधन, तुम्हारे हृदय में जो वृत्ति रहती है कि तुम ही अकेले कुरुओं का शासन करो, उसकी कोई ऐसी युक्ति मेरी समझ में नहीं आती, जो तुम्हें अच्छी लगे। मैं पांच भाइयों के लिए पांच गांव भी लेकर संतुष्ट हो जाऊंगा। परस्पर की प्रीति और शान्ति ही इष्ट है। भाई-भाई और पिता-पुत्र मिले रहें, यही मेरी इच्छा है।” हस्तिनापुर लौटकर संजय धृतराष्ट्र के राजभवन में पहुँचे। दौवारिक से सूचना भेजकर वे राजा से मिले और युधिष्ठिर की ओर से कुछ कुशल संदेश निवेदन किया, किन्तु दिन भर की यात्रा के थके होने से उन्होंने राजा से कहा कि अब मैं आराम करूंगा और कल सभा में कौरवों के सामने युधिष्ठिर का वचन सुनाऊंगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योग, अ. 30
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