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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 12-23
ज्ञात होता है कि द्रौपदी सुदेष्णा के चरित्र को समझ गई थी, जिसने कीचक के षड्यन्त्र में अपने आपको भागीदार बन जाने दिया था। अतएव उसने अपने को सम्भालते हुए रानी से कहा, ‘‘वह जिनका अपराधी है वे ही उसे मारें। मैं समझती हूँ, आज ही उसे परलोक जाना पड़ेगा।’’ तब द्रौपदी अपने आवास में आकर बहुत दुःखी हुई। अपने मन में निश्चय करके वह रात में ही भीमसेन के कक्ष में पहुँची और उसे जगाकर सब हाल कहा, ‘‘हे भीम! युधिष्ठिर जिसका पति हो, क्या वह कभी शोकरहित हो सकती है? सब कुछ जानते हुए भी मुझसे क्या पूछते हो? कौरव सभा में दुःशासन ने, वनवास में दुरात्मा जयद्रथ ने और जब कीचक ने मेरा अपमान किया है। मेरे जीने का क्या फल है? मेरा हृदय पके फल के समान विदीर्ण क्यों नहीं हो जाता? कहाँ वे पूर्वकाल के राजा युधिष्ठिर और कहाँ विराट की सभा में पासा फेंकने वाले ये कंक? अपना दुखड़ा तक कहूँ? जब तुम रनिवास में व्याघ्र, महिष और सिहों से कुश्ती करते हो और मैं तुम्हारे कल्याण की चिन्ता से दुःखी हो जाती हूँ तो रानी सुदेष्णा समझती है कि मेरा तुमसे प्रेम है और मुझे ताना मारती है। उससे मुझे मर्मान्तक कष्ट होता है। जिसने खाण्डव वन में अग्नि को तृप्त किया था, आज वह पार्थ यहाँ अन्तःपुर में कुएं में पड़ी हुई अग्नि के समान व्यर्थ है। जिसके जन्म से कुन्ती ने अपने को शोकविहीन माना था, आज उसी तुम्हारे भ्राता को कन्याओं से घिरा हुआ देखकर मैं शोकाकुल हूँ। आर्या कुंती उसकी यह दशा नहीं जानती होगी, नहीं तो न जाने क्या हो जाता! मैं उस काल की प्रतिक्षा में जा रही हूँ, जब अपने पतियों का उदय फिर से देखूंगी। पाण्डवों की महिषी, राजा द्रुपद की पुत्री इस अवस्था में भी क्यों जीवित है? दैव ही उसका कारण है। चन्दन पीसने से घट्टे पड़े हुए ये मेरे हाथ देखो। जो मैं कुन्ती से या तुमसे भी नहीं डरती थी, वही आज विराट के सामने यह सोचकर किंकरी के समान कांपती हूँ, ‘‘सम्राट मुझसे पूछेंगे कि गन्धानुलेपन अभी तैयार हुआ या नहीं, क्योंकि और किसी का घिसा चन्दन मत्स्यराज को अच्छा नहीं लगता।’’ उसके यह वचन सुनकर भीमसेन उसके सूजे हुए हाथों को मुख के पास लाकर रोने लगे और बोले, ‘‘मेरे बाहुबल को धिक्कार है! मैं तो आज विराट की सभा में ही मार-काट मचा देता, पर धर्मराज ने मुझे आंख के इशारे से रोक दिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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