विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 295-299
40. यक्ष-युधिष्ठिर-प्रश्नोत्तरी
प्रश्न- सूर्य को कौन ऊँचा ले जाता है? उसके अभिमत साथी कौन हैं? कौन इसे अस्त की ओर ले जाता है? और यह किसके आलम्बन पर स्थित होता है? उत्तर- ब्रह्म आदित्य का उदय कराता है। देव उसके प्रिय साथी हैं। सत्य उसे अस्त की ओर ले जाता है। वह धर्म के धरातल पर प्रतिष्ठित होता है। प्रश्न- किससे श्रोत्रिय होता है? किससे महान की प्राप्ति होती है? किससे व्यक्ति साथी वाला बनता है? किससे वह बुद्धिमान होता है? उत्तर- श्रुत-ज्ञान से श्रोत्रिय होता है। तप से महान की प्राप्ति होती है। धृति से व्यक्ति साथी वाला बनता है। वृद्धों की सेवा से बुद्धिमान होता है। प्रश्न- ब्राह्मणों में देवत्व क्या है? इनमें भलेमानसों की बात कौन-सी है? इनमें मनुष्यपना क्या है? इनमें कौन-सी बात पाजीपन की है? उत्तर- स्वाध्याय इनका देवपना है। वे तप करते हैं यही, भले आदमियों जैसी बात है। मर जाते हैं, यही इनके मनुष्य होने का प्रमाण है। जब झगड़ने लगते हैं, यही उनका पाजीपन है। प्रश्न- क्षत्रियों में देवत्व क्या है? भलेमानसों जैसी बात क्या है? मनुष्यपने की बात क्या है? और पाजीपन की बात क्या है? उत्तर- बाण चलाना ही उनकी देवतुल्य शक्ति है। यज्ञ करना भला काम है। उनमें जब भय होता है यही मानुषी भाव है। वे जब कर्म छोड़ बैठते हैं, वहीं उनका असत रूप है। प्रश्न- सब यज्ञों का एक साम क्या है? सब यज्ञों में ओत-प्रोत एक यजु क्या है? कौन यज्ञ का तक्षण करती है? यज्ञ किस वस्तु का अतिक्रमण नहीं करता? उत्तर- यज्ञों का साम प्राण है। यज्ञों का यजु मन है। वाक यज्ञ का तक्षण करती है। यज्ञ वाक का अतिक्रमण नहीं करता।’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसके पीछे त्रयी विघा का मूल तत्त्व निहित है। इसमें प्राण को सामवेद, मन को यजुर्वेद और वाक को ऋग्वेद माना गया है। प्रत्येक पिण्ड का व्यास ऋग्वेद है, जिससे मूर्ति का निर्माण है। उसे ही वाक कहा जाता है पिण्ड की जो परिधि या सीमा है, वही उसका तेजोमण्डल या साम है। पिण्ड के भीतर जो भरा हुआ रसतत्त्व है अथवा गति और स्थिति का जो सन्तुलन है, वही यजु है। उसे यहाँ मन कहा है। वस्तुतः वैदिक परिभाषा में मन को साम और प्राण को यजु माना गया है। इसकी व्याख्या के लिए निम्नलिखित मन्त्र देखना चाहिए-
ऋग्भ्य जातां सर्वशो मूर्तिमाहुः सर्वां गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्व तेजः साम रूपं ह शश्वत सर्व हींय ब्रह्मणा हैव सृष्टम्।। (तैत्तिरीय 3। 12। 9। 1)ऋक से मूर्ति या पिण्ड का निर्माण होता है। उसी को यज्ञ का तक्षण कहा है, अर्थात ऋग्वेद रूपी व्यास से प्रत्येक वस्तु के विस्तार का नियमन होता है। सामवेद तेजोरूप मण्डल या परिधि का निर्माण करता है और यजु वह गति तत्त्व या रस है, जो वस्तु से परिच्छिन्न होता है। ऋक और साम केवल आयतन, पात्र, वयोनाथ, या छन्द कहे जाते हैं। यजुर्वेद वह तत्त्व है, जो उस छन्द से छन्दित होता है। वही वय है, जो वयोनाध रूपी आयतन में गृहीत होता है। ऋक यजु साम के इस अविनाभूत सम्बन्ध को ही त्रयी विद्या कहते हैं। यही केन्द्र, व्यास और परिधि का संस्थान है, जिसमें, केन्द्र यजु, व्यास ऋक और परिधि साम कहलाती है। इसी वैदिक तत्त्व को लक्ष्य में रखकर ऊपर की प्रश्नोत्तरी कही गई है।
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज