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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 248-256
एक दिन पाण्डव द्रौपदी को आश्रम में छोड़कर तृणबिन्दु की आज्ञा से मृगया के लिए निकल गए। उनकी अनुपस्थिति में सिन्धु-सौवीर का राजा जयद्रथ विवाह की इच्छा से शाल्वेय जनपद को जाता हुआ अनेक साथियों के साथ काम्यक वन में आया। आश्रम के द्वार पर द्रौपदी को खड़ी देखकर वह मोहित हो गया और शिवि देश के राजकुमार कोटिकाश्य को उसके विषय में पूछताछ करने के लिए भेजा। द्रौपदी ने स्वागत करके अपना परिचय दिया। उसने लौटकर जयद्रथ से समाचार कहा, तब वह अपने को न सम्हालकर आश्रम में आया और उसने द्रौपदी से विवाह का प्रस्ताव करते हुए सिन्धु-सौवीर चलने को कहा। द्रौपदी ने तेजस्विता से उसकी भर्त्सना की, किन्तु उस दुष्ट ने बल-पूर्वक उसे पकड़कर रथ पर बैठा लिया और ले चला। द्रौपदी ने करुणा भाव से पुरोहित धौम्य को पुकारा। धौम्य ने जयद्रथ को समझाने का प्रयत्न किया, पर जब कुछ परिणाम न निकला, तो द्रौपदी अत्यधिक विलाप करने लगी और धौम्य भी पैदल ही उसके पीछे चले। पाण्डव जैसे ही लौटकर आश्रम में आये, उन्हें धात्री से सब हाल ज्ञात हुआ। उसने बिलखकर कहा, ‘‘आज जयद्रथ ने द्रौपदी का धर्षण किया है। इससे पहले कि घृत-पूर्ण स्रुव की आहुति भस्म में गिरे, हविष्यान्न तुषाग्नि में फेंका जाय, यज्ञीय सोम को कुत्ता चाटे, श्रृगाल पद्म-पुष्करिणी में प्रवेश करे, अथवा इश्वा पुरोडाश का स्पर्श करे, तुम सब लोग सन्नद्ध होकर उस ओर जाओ जिस ओर वह दुष्ट गया है।’’ यह सुनकर पाण्डव सर्पों के समान फुफकारकर अपने महाधनुषों को टंकारते हुए उसी ओर दौड़े, जिस ओर सेना की धूल उठ रही थी। बाज की तरह झपट कर उन्होंने अपने पराक्रम से जयद्रथ और उसकी सेना को जा पकड़ा। द्रौपदी ने अपने पतियों को आया हुआ देखकर जयद्रथ को फटकारा, ‘‘अरे दुरात्मन आज तुम में से कोई शेष न बचेगा। भाइयों सहित धर्मराज को देखकर अब मुझे भय या व्यथा नहीं है।’’ फिर पाण्डवों का जयद्रथ से अतिघोर युद्ध हुआ। इसके अनेक वीर युद्ध में काम आये। तब जयद्रथ द्रौपदी को छोड़कर अपने प्राण लेकर भागा। जयद्रथ को भागते हुए देखकर अर्जुन ने भीमसेन को रोकते हुए कहा, ‘‘अब सैन्धव सैनिकों का वध मत करो। हमारे आक्रमण का लक्ष्य वही दुष्ट था।’’ भीमसेन ने कहा, ‘‘आप सब लोग द्रौपदी को लेकर आश्रम में जायँ। मैं उस दुष्ट को पाताल तक भी जीवित न छोडूँगा।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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