विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 227-240
35. दुर्योधन की घोष-यात्रा
धृतराष्ट्र की बात के इस दांव को बचाने के लिए शकुनि ने एक पैंतरा बदला और जैसा उसने जीवन में कभी नहीं किया था, उसने भी पाण्डवों की श्लाघा में दो शब्द कहे, ‘‘युधिष्ठिर धर्मज्ञ हैं। सभा में प्रतिज्ञा करके गये हैं कि बारह वर्ष वन में रहेंगे। उनके धर्मचारी भाई उनके अनुगामी हैं। इसलिए उनकी ओर से कुछ खटका न करना चाहिए। पाण्डवों का दर्शन करना हमारी इच्छा भी नहीं। हमें तो मृगया और गायों की गिनती के लिए वहाँ जाना है। कोई अनार्योचित बात वहाँ न होगी।’’ यह सुनकर धृतराष्ट्र ने अनुमति दे दी और दुर्योधन बड़ी सेना सजा कर द्वैतवन में सरोवर के पास पहुँचा। प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि प्रतिवर्ष राज्य की गायों का स्मारण या गणना होती थी। गौ और ग्वाले वन के जिस भाग में पड़ाव डालते थे, उसे घोष कहा जाता था। जब गायें एक वन में चर चुकती तो वे दूसरे वन में चली जाती थीं। पहला वन पाणिनि के अनुसार भूतपूर्व गोष्ठ या आशितङ्गवीन अरण्य कहा जाता था। गायों के स्मारण में तुरन्त की ब्याई गायों को, बछड़ों को और ग्याभिन हुई ओसर बछियों को गिना जाता था। और उन पर अंक या निशान डाल दिये जाते थे। तीन वर्ष की आयु के पशुओं को विशेष रूप से लिख दिया जाता था, क्योंकि सम्भावना थी कि वे वर्ष के बीच में ही ग्याभिन होकर बच्चा दे दें, जिसकी चोरी से राज्य की हानि हो जाय।[1] घोष में गायों की संख्या सहस्रों होती थीं। जैन-साहित्य के अनुसार दस सहस्र गायों की संख्या को ब्रज कहा जाता था। गौओं की गणना समाप्त करके दुर्योधन ने मृगया से अपना मन बहलाया और वह द्वैतवन सरोवर की ओर बढ़ गया। वहाँ उस दिन युधिष्ठिर ने संद्यस्क नामक राजर्षि यज्ञ किया था। युधिष्ठिर का पड़ाव सरोवर के चारों ओर फैला था। दुर्योधन ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि अखाड़ा (आक्रीड़ावसथ) का निर्माण करें। उन्होंने द्वैतवन सरोवर के पास ही ऐसा करना चाहा। वहाँ उसी समय गंधर्वराज चित्रसेन अप्सराओं के साथ विहार के लिए आया हुआ था। उसके गन्धर्वों ने कुछ रोकथाम की, तो दुर्योधन के परिचारकों ने जाकर शिकायत की। दुर्योधन आग-बबूला हो गया और उसने गन्धर्वों की बस्ती को उखाड़ फेंकने की आज्ञा दी। इस पर दोनों में बात बढ़ गई। दुर्योधन के महाबली साथी तन गए। गन्धर्वों ने फिर रोका, किन्तु लात के देवता बात से नहीं मानते। दोनों दलों में बज गई और गन्धर्वों ने कौरवों की सेना को तितर-बितर करके दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि, कर्ण आदि को बान्ध लिया। इस प्रकार अवरुद्ध हुए दुर्योधन के मंत्री रोते-पुकारते युधिष्ठिर के पास पहुँचे। उनकी बात सुनकर भीमसेन ने कहा, ‘‘अरे, तुम लोग कुछ और करने चले थे, हो गया कुछ और- अस्माभिर्यदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम्[2] हम तुमसे बदला लेते, पर हमारा काम गन्धर्वों ने ही कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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