भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
जितना जीवन का विस्तार है, उतना ही व्यापक धर्म का क्षेत्र है। धर्म की इस व्याख्या के अनुसार धर्म जीवन का सक्रिय तत्त्व है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की निजी स्थिति और लोक की स्थिति सम्भव बन रही है। धर्म, अर्थ, काम की संज्ञा त्रिवर्ग है। इस त्रिवर्ग में भी धर्म ही मुख्य है एवं राज्य का मूल भी धर्म ही हैः
धर्म अथवा मोक्ष के विषय में भी जो कुछ मूल्यवान अंश महाभारत में है, उस पर प्रस्तुत अध्ययन में विशेष ध्यान दिया गया है। पूना से महाभारत का जो संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ है, उस पाठ को आधार मानकर यह विवेचन किया गया है। जहाँ सम्भव था, वहाँ यह सूचित करने का भी प्रयत्न किया गया है कि महाभारत के पाठ-विकास की परम्परा में कौन-सा अंश मौलिक और कौन-सा मूल के उपबृंहण का परिणाम था। इसमें दो विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाया जा सकता है। एक तो, जहाँ किसी प्रकरण या आख्यान के अन्त में फलश्रुति का उल्लेख हुआ है, वह अंश उपबृंहण का फल माना गया है। दूसरे, जहाँ किसी कथांश को एक बार संक्षेप में कहकर पुनः उसी को विस्तार से सुनने या कहने की प्रार्थना की गई है, वह अंश भी प्रायः उपबृंहण या पाठ-विस्तार का ही परिणाम था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व 4।4
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