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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 28-30
द्रौपदी के ये नीति-युक्त वचन सुनकर भी धर्मराज पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उन्होंने क्रोध के दुष्परिणाम और उसे बस में करने के गुणों पर उलटे द्रौपदी को उपदेश दे डालाः “क्रोध में बहुत दोष हैं। जो प्रज्ञा से क्रोध को वश में रखता है, वही सच्चा तेजस्वी है। तेजपूर्वक बर्तने के लिए भी क्रोध का त्याग आवश्यक है। काश्यप ने क्षमा के विषय में इस प्रकार की गाथाएं कही हैः क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है, क्षमा ही वेदों का ज्ञान है। क्षमा ब्रह्मा है, क्षमा सत्य है, क्षमा तप है। जो क्षमावादी हैं, वे ब्रह्मविद्, यज्ञवित् और तपस्वियों से भी ऊंचा लोक पाते हैं। यह लोक और वह लोक दोनों क्षमावान के लिए हैं। जिसने क्षमा से क्रोध को जीत लिया है, उसका स्थान सबसे उच्च है, इसलिए शान्ति सर्वोपरि है। अतएव, हे द्रौपदी, काश्यप की इन शान्तिवादी गाथाओं को सुनकर तुम क्रोध न करो। हे प्रिये! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, विदुर और व्यास से क्षमा के पक्ष में हैं। वे धृतराष्ट्र को समझायंगे और वे हमें हमारा राज्य लौटा देंगे। यदि नहीं, तो लोभ से उन्हीं का नाश हो जायगा। मैंने पहले ही समझ लिया था कि क्षमा-सम्बन्धी विचारों की योग्यता दुर्योधन में नहीं है। मैं ही उनके योग्य हूँ। अतएव मेरे ही पास क्षमा आती है।” धर्म ने रक्षा क्यों नहीं की?
युधिष्ठिर के ये वचन सुनकर द्रौपदी हतप्रभ हो गई। उसने पहले तो ब्रह्मा को प्रणाम किया, “हा विधाता! तुम्हारे पैर छूती हूँ। तुमने इनकी बुद्धि पर कैसा परदा डाल दिया है।” फिर साहस बटोरकर वह बोली, “मैं जानती हूं, आप भीमसेन और अर्जुन को, माद्रीपुत्रों को और मुझे भी एक बार छोड़ देंगे, पर धर्म को नहीं छोड़ेंगे। मैंने आर्यों से सुना है– ‘जो धर्म की रक्षा करता है‚ धर्म उसकी रक्षा करता है’- पर मैं देखती हूँ कि आपकी रक्षा धर्म भी नहीं करता। छाया जैसे पुरुष के पीछे चलती है, आपकी बुद्धि सदा धर्म के पीछे चली है। देव, पितर, अतिथि, ब्राह्मण इन सबके प्रति आपके धर्म से व्यवहार किया है। राज्य छोड़कर वन में आ गये, पर धर्म नहीं छूटा। कैसे यह हुआ कि आपकी वह धर्मिष्ठ बुद्धि द्यूत के व्यसन में फंस गई? सोचती हूं, लोक ईश्वर के वश में है। विधाता जैसा घुमाता है, वैसा ही होता है। वह मनुष्यों को कठपुतली की तरह चलाता है। धागे से बंधा हुआ पक्षी जैसे परवश है, नाथा हुआ बैल लाचार है, वैसे ही मनुष्य आत्माधीन नहीं। धार के बीच में पड़ा हुआ वृक्ष जैसे उखड़ जाता है, वैसे ही दुःख-सुख के फेर में पड़ा हुआ अज्ञ मनुष्य भी। यह शरीर ब्रह्मा के हाथ का खिलौना है, मनुष्य अपने मन से क्या-क्या समझते हैं, और विधि क्या-क्या कर डालता है? बालक जैसे खिलौनों से खेलता है, ऐसे ही यह सब भगवान का खेल है। माता-पिता की भाँति दयार्द्र हृदय से ब्रह्मा व्यवहार नहीं करता। उसके हाथ में सबके लिए कड़ा चाबुक है। मुझे तो उस ब्रह्मा पर तरस आता है, जिसने आपको आपत्ति और दुर्योधन को सम्पत्ति दी।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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