भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
नार्वे, आइसलैंड आदि उत्तराखण्डवर्ती देशों की प्राचीन गाथाओं के विद्वान आज मुक्तकंठ से सीमंड और उसके पुत्र स्नोरी की प्रतिभा का गुणगान करते हैं, जिन्होंने आर्यों की ही एक शाखा त्यूतन लोगों की प्राचीन गाथाओं का संग्रह 11वीं-12वीं शती के लगभग किया। सीमंड ने ‘पोइटिक एड्डा’ के नाम से सब उपाख्यानों को एकत्र किया। तदनंतर उसके पौत्र स्नोरी स्टर्लेसान ने जिसका जन्म सन 1179-1181 के बीच हुआ था और जो पीछे से आइसलैंड का राष्ट्रपति भी बन गया था, उन सब कथाओं का गद्य रूप में एक अत्यन्त उत्कृष्ट संस्करण तैयार किया। आज यही बात हम व्यास, शुक और लोमहर्षण के लिए भी कह सकते हैं जिन्होंने सीमंड और स्नोरी से सहस्रों वर्ष पहले आर्यों के विराट गाथा-वाङ्मय को अपने काव्य में गूंथकर उसे सदा के लिए अमर कर दिया। इसी कारण महाभारत वेद और पुराणों के उपाख्यानों का अक्षय भण्डार बना हुआ है। ‘एड्डा’ और ‘सागाओं’ के लिए प्रख्यात लेखक कारलाइल ने लिखा है कि ये इतनी महान कृतियां हैं कि इन्हें किंचित स्वल्प कर देने पर शेक्सपीयर, दांते, गेटे बन जायंगे। शेक्सपीयर, दांते और गेटे के स्थान पर भास, कालिदास, माघ, भारवि और हर्ष का नाम रख देने से ये ही उद्गार वेदव्यास के लिए ठीक घटित होते हैं। स्वयं महाभारत में कहा हैः
‘अंगों और उपनिषदों के साथ चारों वेदों का जिसे ज्ञान है, किन्तु जो इस महाभारत संज्ञक आख्यान को नहीं जानता, उसे विलक्षण नहीं कह सकते। इस उपाख्यान को सुन लेने के बाद और कुछ अच्छा नहीं लगता, जैसे कोयल का मधुर स्वर सुन लेने पर कौवों के रूखे बोल नहीं सुहाते। इस उत्तम इतिहास से कवियों की विशाल प्रतिभाएं जन्म लेती हैं। इस आख्यान का आश्रय लिये बिना पृथ्वी पर किसी कथा का अस्तित्व नहीं है, वैसे ही जैसे आहार के बिना शरीर धारण नहीं किया जा सकता। सारे श्रेष्ठ कवि इस आख्यान का आश्रय लेते हैं। सब आगमों में यह इतिहास श्रेष्ठ है और अर्थों की दृष्टि से प्रधान है। इस उत्तम इतिहास में भगवान वेदव्यास की उत्तम बुद्धि उसी प्रकार ओतप्रोत है, जिस प्रकार स्वर और व्यंजनों में लोक और वेद की समस्त वाणी अर्पित है। प्रज्ञा से समृद्ध इस भारत इतिहास का श्रवण करना चाहिए।’[2] महाभारत के ओज-पूर्ण प्रवाह के कितने ही प्रकरणों की गूंज राष्ट्र के कानों में अनेक शताब्दियों के बीत जाने पर भी बराबर सुनाई देती रही है। शतसहस्र शाखाओं में फैले हुए पुराण वटवृक्ष के नीचे अखण्ड समाधि में विराजमान महर्षि वेदव्यास ने धर्मसंज्ञक किसी अपरिमेय एवं अचिन्त्य तत्त्व का स्वयं साक्षात्कार किया तथा अपनी अलौकिक काव्य प्रतिभा द्वारा उसे सब जनों के हितार्थ महाभारत में निबद्ध कर दिया। उनके भगीरथ तप से जो धर्माम्बुवती ज्ञानगंगा प्रवाहित हुई उसकी सरस धारा में समस्त राष्ट्र ने सहस्रों वर्षों तक अवगाहन किया है। जब तक भूमण्डल पर चन्द्र और सूर्य का प्रकाश है, जब तक अग्निषोमीय पुरुष का मानवीय व्यवहार जगत में चालू है, जब तक गंगा-यमुना के तटों पर आकाशचारी हंस प्रति निर्मल शरद में उतरते हैं, तब तक भगवान की अनन्त महिमा को प्रख्यात करने वाला यह जय नामक इतिहास लोक में अमर रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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