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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 60-72
द्रौपदी के कौरवों की सभा में लाये जाने की घटना महाभारत में दो प्रकार से दी गई है। एक तो जब दुर्योधन ने द्रौपदी को लिवा लाने के लिए अपना दूत महल में भेजा, तब युधिष्ठिर का संभवतः मन में यह आशंका हुई कि द्रौपदी को लाने के लिए कहीं बल-प्रयोग न किया जाय, अथवा द्रौपदी को ही यह सन्देह उत्पन्न हो कि उसके वहाँ आने के विषय में उसके पति की क्या सम्मति है। अतएव युधिष्ठिर ने अपना विश्वस्त दूत भी महलों में भेजकर द्रौपदी को संदेश भेजा कि वह वहाँ आ जाय। फलतः मलिनवसना द्रौपदी सभा में आकर अपने ससुर के सामने खड़ी हो गई।[1] ज्ञात होता है, यही उस घटना का संक्षिप्त और मूल रूप था। घटना का दूसरा बृहत्तर रूप इस प्रकार वर्णित हुआ हैः दुर्योधन के दूत ने महल से लौटकर सभा में द्रौपदी का प्रश्न युधिष्ठिर से कह सुनाया, किन्तु युधिष्ठिर ने उसका कोई उत्तर न दिया। तब दूत ने स्वभावतः सभा की ओर अभिमुख होकर वही प्रश्न दोहराया और आग्रह किया, “आप लोग बतावें, मैं जाकर क्या उत्तर दूं?” इस पर दुर्योधन तमतमा गया। उसने तमककर दुःशासन से कहा, “ज्ञात होता है कि यह सूतपुत्र कायर है, मन में भीमसेन से डरता है। तुम स्वयं जाकर द्रौपदी को पकड़ कर ले आओ। उसके ये पराधीन पति अब क्या कर सकते हैं?” यह सुनकर दुःशासन उठा और द्रौपदी के भवन में जाकर बोला, “अयि पांचाली, तुम द्यूत में जीत ली गई हो। लज्जा त्यागकर दुर्योधन के दर्शन करो। उसने धर्म से तुम्हें पाया है। सभा में आओ।” दुःशासन की यह निर्लज्ज वाणी सुनकर द्रौपदी अत्यन्त दुःखी हुई। अपने विवर्ण मुख को हाथ में छिपाकर रोती हुई उस ओर दौड़ी, जहाँ महल में गान्धारी रहती थी। दुःशासन ने क्रोध से झपटकर उसके बाल पकड़ लिये और वह उसे बलपूर्वक सभा में ले आया। द्रौपदी ने कांपते हुए कहा, “हे अनार्य, मैं सभा में चलने योग्य नहीं हूँ। मैं आज मलिनवसना हूँ और केवल एक वस्त्र पहने हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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