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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 43-51
दुर्योधन ने गहरी सांस लेकर कहा, “मेरा खाना-पहनना कायर पुरुषों जैसा है। जब मैं युधिष्ठिर की महती श्री देखता हूँ तब खाया-पिया मेरी देह को नहीं लगता।” इस प्रसंग में आगे दुर्योधन ने युधिष्ठिर की उस अतुल धन-सम्पत्ति का वर्णन किया, जिसे राजाओं से उपहार लेते समय उसने स्वयं देखा था। इस प्रकरण को महाभारत में ‘दुर्योधन-संताप’ या कहीं ‘दुर्योधन-प्रलाप' भी कहा गया है। हमने इसे ‘उपायन–पर्व’ नाम दिया है, क्योंकि इसमें उन उपायनों या भेंट के सम्भारों का वर्णन है, जिन्हें चारों दिशाओं के राजा युधिष्ठिर को देने के लिए लाये थे। आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से यह प्रकरण महत्त्वपूर्ण है। मध्य एशिया से दक्षिणी समुद्र तक और सिन्ध से कलिंग-ताम्रलिप्ति तक के अनेक जनपदों और भू-भागों का इसमें उल्लेख है। इस प्रसंग के लेखक के मन में देश की भौगोलिक और आर्थिक इकाई का विचार बद्धमूल था। सभा-पर्व के चार अध्यायों[1] में यह प्रकरण आया है। अध्याय 45 में इसका संक्षिप्त रूप है, जिसमें बहुत ही थोड़े उल्लेख हैं, किन्तु इसके बाद अध्याय 46 में जनमेजय ने इसी कथा को पुनः विस्तार से सुनने की इच्छा प्रकट की, जिसके फलस्वरूप लगभग सौ श्लोकों में इसका पुनः वर्णन हुआ है। ज्ञात होता है कि महाभारत के मूल संस्करण में इस विषय का बीजरूप में उल्लेख किया गया था। वही शक-कुषाण काल के बाद परिवर्द्धित भौगोलिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को लेकर वर्तमान रूप में सजा दिया गया है। इस विस्तार का उल्लेख भी विचित्र सच्चाई के साथ इस ग्रन्थ में रह गया है। शक, तुषार, कंक, बाह्लीक और चीन के नामोल्लेख से इसका काल सूचित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 45-48
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