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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
यह कहकर नारद जी ने युधिष्ठिर से कुछ और भी कुशल प्रश्न कियेः “जो व्यापारी लाभ के लिए दूर-दूर से माल लेकर आते हैं, उनसे तुम्हारे चुंगी के अधिकारी निर्धारित शुल्क तो वसूल करते हैं? वे सब वणिक तुम्हारे नगर और राज्य में छल-प्रपंचों से ठगे न जाकर अपना माल तो ला सकते हैं? तुम वृद्धों के धर्माकूल और अर्थशास्त्रानुकूल वचन तो सुनते हो? राज्य के कृषि तंत्र, गोधन एवं पुष्प और फलों से उत्पन्न धान्य, घृत और मधु धर्मार्थ द्विजातियों को दिया जाता है या नहीं? तुम सब शिल्पियों को चौमासे से पहले ही पर्याप्त द्रव्य-सामग्री तो दे देते हो, जिससे वे हर्जे के बिना अपना काम करते रहें? नारद की यह अमृतोपम वाणी सुनकर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने प्रसन्न मन से उन्हें अभिवादन करके कहा, “आपने जैसा कहा है, मैं वैसा ही करूंगा। आपके इस उपदेश से मेरी प्रज्ञा में वृद्धि हुई है।” सभा-पर्व का यह प्रकरण राजाओं के लिए आवश्यक प्रज्ञा या व्यावहारिक बुद्धिमत्ता का सुन्दर संग्रह है। महाभारत के अन्य अनेक प्रकरणों में भी धर्म, अर्थ और काम के अनुकूल जीवन-यापन की निपुणता को प्रज्ञा कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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