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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 175-188
पाण्डव भी द्रौपदी के साथ उस कुम्हार के घर वापस आये, जहाँ कुन्ती थी। अर्जुन और भीम ने प्रसन्न होकर माता से कहा, “आज यह भिक्षा मिली है।” कुन्ती ने कुटी के भीतर से ही उत्तर दिया, “सब लोग इसे मिलकर भोगो (उवाच भुङ्क्तेति समेत्य सर्वे)।” पीछे जब कुन्ती ने द्रौपदी को देखा तब वह दुःखी हुई कि मैंने क्या कह दिया। वह अधर्म से डरी और द्रौपदी का हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास जाकर बोली, “द्रुपद की पुत्री इस कन्या को जब तुम्हारे दोनों भाइयों ने आज मुझे निवेदित किया तो मैंने भूल से यह कह डाला कि सब लोग इसे मिलकर भोगो। अब क्या किया जाय, जिससे मेरा वचन मिथ्या न हो और द्रौपदी को भी अधर्म न लगे?” युधिष्ठिर ने माता को सांत्वना दी और अर्जुन से कहा, “हे धनंजय, तुमने द्रौपदी को जीता है, तुमसे ही इस राजपुत्री की प्रसन्नता है। तुम अग्नि में हवन करके विधिवत इसका पाणिग्रहण करो।” अर्जुन ने उत्तर दिया, “हे राजन, मुझे अधर्म में मत सानिए। और लोग इसे धर्म नहीं मानते। पहले आप विवाह करेंगे, पीछे भीम, तब मैं, मेरे बाद नकुल और उसके बाद सहदेव। एक ओर हम पांच हैं, दूसरी ओर यह कन्या है। ऐसी स्थिति में जो करना चाहिए, जो धर्मयुक्त हो, जिससे निंदा न हो ओर जो पांचालराज द्रुपद को भी प्रिय लगे, वह उपाय बताइए। हम सब आपकी बात मानेंगे।” युधिष्ठिर ने भाइयों की ओर घूम कर देखा और समझ गए कि सभी का मन द्रौपदी पर अनुरक्त है। उन्होंने भाइयों से कहा, “द्रौपदी हम सबकी भार्या होगी।” भाइयों ने मन से इस बात का अनुमोदन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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