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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 87
सनत्कुमार जी बोले- प्रभो! जो शरीर रज-वीर्य से उत्पन्न होते हैं, वे ही प्राकृतिक कहे जाते हैं; किंतु जो प्रकृति के स्वामी और कारण हैं उनका शरीर प्राकृत कैसे हो सकता हैं? आप तो समस्त कारणों के आदिकारण, सभी अवतारों के प्रधान बीज, अविनाशी स्वयं भगवान हैं। वेद आपको सदा नित्य, सनातन, ज्योतिः स्वरूप, परमोत्कृष्ट, परमात्मा और ईश्वर कहते हैं। प्रभो! वेदांग तथा वेदज्ञ लोग भी आप मायापति निर्गुण परात्पर तो माया द्वारा सगुण रूप हुआ बतलाते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- विप्रवर! इस समय मैं वसुदेव का पुत्र वासुदेव हूँ। मेरा शरीर रक्त वीर्य के ही आश्रित है; फिर यह प्राकृत कैसे नहीं है और इसके लिए कुशल-प्रश्न अभीष्ट क्यों नहीं है? सनत्कुमार जी बोले- जिसके रोमकूपों में सारे विश्व निवास करते हैं तथा जो सबका निवास स्थान है, उसे ‘वासु’ कहते हैं; उसका देवता परब्रह्म ‘वासुदेव’ ऐसा कहा जाता है। उनका ‘वासुदेव’ यह नाम चारों वेदों, पुराणों, इतिहासों और सभी प्रथाओं में देखा जाता है। भला, वेद में आपके रक्तवीर्याश्रित शरीर का कहाँ निरूपण हुआ है? इसके लिए ये मुनिगण तथा धर्म सर्वत्र साक्षी हैं। इस अवसर पर वेद और सूर्य-चंद्रमा मेरे गवाह हैं। भृगु ने कहा- विप्रेन्द्र! आप ही वैष्णवों में अग्रगण्य हैं; आपका कहना बिलकुल सत्य है। आपका स्वागत है; सदा कुशल तो है न? किस निमित्त को लेकर आपका यहाँ आगमन हुआ है? सनत्कुमार जी बोले- श्रीकृष्ण! इस समय मैं जिस निमित्त से अत्यंत शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ उसका कारण श्रवण करो और ये सभी मुनि भी उसे सुन लें। श्रीकृष्ण ने कहा- भगवन! आप संपूर्ण धर्मों के ज्ञात हैं। सर्वज्ञ! आप तो सब कुछ जानते हैं; क्योंकि आप ही विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ हैं; अतः बताइये, किस प्रयोजन से आप यहाँ पधारे हैं? सनत्कुमार जी बोले- भगवन! आप धन्य हैं। लोकों के लिए भी आप सदा मान्य हैं और समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर आप ही हैं। विश्व में आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। तदनन्तर मुनियों के पूछने पर सनत्कुमार जी ने बताया कि मैं परम धन्य, मान्य, विधाता के भी विधाता, सर्वादि, सर्वकारक, परमात्मा, परिपूर्णतम प्रभु के दर्शनार्थ मथुरा में आया हूँ। यह सुनकर सभी देवता और मुनि हँसने लगे तथा उन्हें महान विस्मय हुआ। नन्द जी भी आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति पुत्रभाव का त्याग कर दिया और शोक से व्याकुल हो वे सभा के बीच लज्जा छोड़कर रोने लगे। तब पार्वती ने ‘मोह को त्याग दो’- यों कहकर उन्हें ढाढ़स बँधाया। तब श्रीनन्द जी बोले- देवेश! जैसे कुजन्मा के गृह में स्थित अमूल्य रत्न और हीरे के मूल्य नहीं समझा जाता, उसी तरह प्रभो! मैं भी ठगा गया। भगवन! आप प्रकृति से परे हैं; अतः मेरा अपराध क्षमा कर दीजिए। अब मैं पुनः यमुना तट पर स्थित गोकुल में अपने घर नहीं जाऊँगा। भला, आप ही बताइये, वहाँ जाकर मैं यशोदा तथा तुम्हारी प्रेयसी राधिका को भी क्या उत्तर दूँगा और तुम्हारे प्रेमपात्र गोप बालकों से क्या कहूँगा? नारद! इतना कहकर नन्द जी सभा में ही मूर्च्छित हो गये। तब जगदीश्वर श्रीकृष्ण उसी क्षण उन्हें गोद में लेकर समझाने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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