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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
जिनके भय से वायु चलती है; जिनके भय से सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं, अग्नि जलाती है और मृत्यु प्राणियों में विचरण करती है। जिनकी सेवा करने से पृथ्वी सबकी आधार स्वरूपा तथा धन की भण्डार हो गयी है। सुन्दरि! जिनसे भयभीत होकर समुद्र और पर्वत निश्चलरूप से अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित रहते हैं। जिनके चरणकमल की सेवा में गंगा देवी तीर्थों की साररूपा, पवित्र, मुक्तिदायिनी और लोकों को पावन करने वाली हो गयी हैं। जिनके स्मरण और सेवन से तुलसीदेवी पवित्र हो गयी हैं तथा नवग्रह और दिक्पाल जिनके प्रताप से डरते रहते हैं। सारे ब्रह्माण्डों मे जो-जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्यान्य सुरेश्वर, शेष आदि तथा मुनिगण हैं; उनमें से कुछ परमात्मा श्रीकृष्ण के कलास्वरूप, कुछ अंशरूप और कुछ कलांशरूप हैं। कल्याणि! तुम उन्हीं परमेश्वर को, जो प्रकृति से परे हैं, अपना पति बनाना चाहती हो, परंतु वे गोलोक में केवल राधिका द्वारा साध्य है; दूसरा कोई कभी भी उन्हें सिद्ध नहीं कर सकता। इतना कहकर छद्मवेषधारी धर्म ने उसकी परीक्षा के लिए प्रचुर भोगसुख का प्रलोभन दिया और अपने को ही पतिरूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया। फिर धर्म उसकी ओर बढ़े। व्रजेश। उनका विचार केवल उसके सतीत्व को जानता था। उनकी यह चेष्टा देखकर उस राजकन्या के मुख और नेत्र क्रोध से वक्र हो गये। तब वह हितकारक, सत्य, योगयुक्त, यशस्कर एवं धर्मार्थ वचन बोली। श्री वृन्दा ने कहा- महाभाग! धैर्य धारण कीजिए। आप तो जातियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों का स्वभाव तपोमूलक, सत्यपरक, वेदव्रती और धैर्यशाली होता है। परायी स्त्रियों के प्रति आकर्षित होना तो अधर्मियों का स्वभाव है। विप्रवर! अधर्म से ही दुष्ट को अमंगल का दर्शन होता है। तत्पश्चात वह शत्रु पर विजय-लाभ करता है और फिर समूल नष्ट हो जाता है। जो बलपूर्वक पतिव्रताओं के साथ व्यभिचार करता है, वह मातृगामी कहलाता है और उसे तुरंत ही सौ ब्रह्महत्या का पाप लगता है- यह निश्चित है। जब तक सूर्य-चंद्रमा की स्थिति है, तब तक वह कुम्भीपाक में यातना भोगता है। यमदूत उसके मस्तक पर लोहे के डंडे से प्रहार करते हैं; वह खौलते हुए तेल में जलाया जाता है; परंतु उसकी सूक्ष्मदेह से प्राण विलग नहीं होते। यह क्षणिक सुख चिरकालिक दुःख का दाता और सर्वविनाश का कारण है। इसीलिए धर्मात्मा पुरुष अगम्या के गमनजन्य दुःख की इच्छा नहीं करते; अतः ज्ञानदुर्बल ब्राह्मण! आपका कल्याण हो, मुझे क्षमा कीजिए और अपने रास्ते जाइये। जैसे दीपक की लौ देखकर पतिंगा निश्चय ही उस पर टूट पड़ता है; लोभी मीन और मृग काँटे के अग्रभाग में मिष्टान्न को देखकर उसे निगलना चाहता है; भूखा मनुष्य विषमिश्रित भोजन को खा जाता है और दुष्ट मुख पर छलछलाते हुए दूध वाले दूषित विषकुम्भ को ग्रहण कर लेता है; उसी तरह लम्पट पुरुष परायी स्त्रियों के मनोहर मुख कमल को, जो विनास का कारण है, देखकर मोहवश भ्रान्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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