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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 85
घोड़े का दान लेने वाला तथा घोड़ा चुराने वाला लालामूत्र नामक नरक में जाता है। वहाँ सौ वर्षों तक रहकर फिर घोड़े की योनि में उत्पन्न होता है। हाथी का दान लेने वाला तथा हाथी चोर एक हजार वर्षों तक विष्ठा के कुण्ड में रहकर फिर हाथी होता है। तत्पश्चात शूद्र के घर जन्म लेता है। छाग का प्रतिग्रही और चोर मनुष्य सौ वर्षों तक पूयकुण्ड में वास करके फिर चाण्डाल होता है। तत्पश्चात एक वर्ष तक छाग की योनि में पैदा होता है। वहाँ शत्रु के शस्त्र द्वारा काटे जाने से मुक्त होकर ब्राह्मण होता है। जो दान की हुई वस्तु का अपहरण करता है तथा वाग्दान करके पुनः उस बात को पलट देता है; वह म्लेच्छ योनि में जन्म लेता है और वहाँ कष्ट भोगकर नरक में जाता है। व्रजेश! जो (दूसरे को न देकर) अकेले ही मिठाइयाँ गप कर जाता है, वह निश्चय ही कालसूत्र नरक में जाता है। वहाँ सौ वर्षों तक यातना भोगकर फिर हजार वर्षों की आयुवाला प्रेत होता है। इसके बाद वह एक जन्मतक मक्खी, एक जन्म में चींटी, एक जन्म में भ्रमर, एक जन्म में मधुमक्खी, एक जन्म में बर्रै, एक जन्म में डाँस, एक जन्म में मच्छर, एक जन्म में दुर्गन्धयुक्त कीट और एक जन्म में खटमल होने के बाद दुर्बुद्धि एवं रोगग्रस्त शूद्र होता है। फिर उससे मुक्त होकर ब्राह्मण हो जाता है। तेल की चोरी करने वाला तेली तीन जन्मों तक सिर का कीट जूँ होता है। जो दुष्ट क्षेत्र की सीमा-मेड़ को नष्ट करने वाला, भूमिचोर, हिंसक तथा दान की हुई भूमि को वापस ले लेने वाला है, वह अवश्यमेव कालसूत्र नरक में जाता है। वहाँ भूख प्यास से पीड़ित होकर साठ हजार वर्षों तक कष्ट भोगता है। तत्पश्चात् विष्ठा का कीड़ा होकर उत्पन्न होता है। इसके बाद एक जन्म में असत् शूद्र होता है और उसके बाद शुद्ध हो जाता है। इसलिए विद्वान को चाहिए कि वह यह सब जानकर यत्नपूर्वक इनसे सावधान रहे। लाल वस्त्र को चुराने वाला एक जन्म में शूद्र होता है; इसके बाद शुद्ध होकर ब्राह्मण हो जाता है। जो ब्राह्मण तीनों काल की संध्याओं से हीन है तथा जो मनुष्य प्रातःकाल, संध्या समय और दिन में सोता है, यज्ञोपवीत की चोरी करता है, अशुद्ध संध्या करता है और वेद-वेदांग का निन्दक है; उसके लिए स्वर्ग का मार्ग निरुद्ध हो जाता है अर्थात वह नरकगामी होता है और तीन जन्मों तक पतित होता है। जो शूद्र होकर ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करता है; वह निश्चय ही कुम्भीपाक में जाता है। वहाँ कष्ट झेलता हुआ तीन लाख वर्षों तक यातना भोगता है। वह रात-दिन भयंकर खौलते हुए तेल में जलता रहता है। तत्पश्चात वह पापी कुलटा नारियों की योनि का कीड़ा होता है। वहाँ साठ हजार वर्षों तक उस योनि का मल ही उसका आहार होता है। फिर क्रमशः एक लाख जन्मों तक वह चाण्डाल होता है। फिर एक जन्म में घावयुक्त कोढ़ वाला शूद्र होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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