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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 84
व्रजेश! स्त्री-जाति तो वस्तुतः शुद्ध है। उसमें वे सारी पतिव्रताएँ और भी पावन मानी जाती हैं। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने एक ही प्रकार से सारी जातियों की रचना की थी। वे सभी उत्तम बुद्धिवाली पवित्र नारियाँ प्रकृति के अंश से उत्पन्न हुई थीं। जब केदार-कन्या के[1] शाप से वह धर्म नष्ट हो गया, तब ब्रह्मा ने कुपित होकर पुनः स्त्री जाति का निर्माण किया और उसे तीन भागों में विभक्त कर दिया। उनमें पहली उत्तमा, दूसरी मध्यमा और तीसरी अधमा कही जाती है। धर्मसंपन्ना उत्तमा स्त्री पति की भक्त होती है। वह प्राणों पर आ बीतने पर भी अपकीर्ति पैदा करने वाले जार पुरुष को नहीं स्वीकार करती। जो गुरुजनों द्वारा यत्नपूर्वक रक्षित होने के कारण भयवश जार पुरुष के पास नहीं जाती और अपने पति को कुछ-कुछ मानती है, वह कृत्रिमा नारी मध्यमा कही जाती है। नन्द जी! ऐसी नारियों का सतीत्व जहाँ स्थानाभाव है, समय नहीं मिलता है और प्रार्थना करने वाला जार पुरुष नहीं है; वहीं स्थिर रह सकता है। अत्यंत नीच कुल में उत्पन्न हुई अधमा स्त्री परम दुष्टा, अधर्मपरायणा, दुष्ट स्वभाववाली, कटुवादिनी और झगड़ालू होती है। वह सदा उपपति की सेवा करती है और अपने पति की नित्य भर्त्सना करती रहती है, उसे दुःख देती है और विष तुल्य समझती है। उसका पति भले ही भूतल पर रूपवान, धर्मात्मा, प्रशंसनीय और महापुरुष हो; परंतु वह उपाय करके उपपति द्वारा उसे मरवा डालती है। उसकी प्रीति बिजली की चमक और जल पर खिंची हुई रेखा के समान क्षणभंगुर होती है। वह सदा अधर्म में तत्पर रहकर निश्चित रूप से कपटपूर्ण वचन ही बोलती है। उसका मन तो व्रत, तपस्या, धर्म और गृहकार्य में ही लगता है और न गुरु तथा देवताओं की ओर ही झुकता है। नन्द जी! इस प्रकार तीन भेदों वाली स्त्रीजाति की कथा मैंने कह दी, अब विभिन्न प्रकार के भक्तों का लक्षण सुनिये। तृण की शय्या का प्रेमी भक्त सांसारिक सुखों के कारणों का त्याग करके अपने मन को मेरे नाम और गुणों के कीर्तन में लगता है। वह मेरे चरण कमल का ध्यान करता है और भक्तिभावसहित उसका पूजन करता है। देवगण उस निष्काम भक्त की अहैतुकी पूजा को ग्रहण करते हैं। ऐसे भक्त अणिमा आदि सारी अभीष्ट सिद्धियों की तथा सुख कारणभूत ब्रह्मत्व, अमरत्व अथवा देवत्व की कामना नहीं करते। उन्हें हरि की दासता के बिना सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य आदि चारों मुक्तियों की अभिलाषा नहीं रहती और न वे निर्वाण-मुक्ति तथा अभीप्सित अमृत पान की ही स्पृहा करते हैं। उन्हें मेरी अतुलनीय निश्चल भक्ति की ही लालसा रहती है। व्रजेश्वर! उन श्रेष्ठ सिद्धेश्वरों में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं रहता और न समस्त जीवों में भिन्नता रहती है। वे दिगम्बर होकर भूख-प्यास आदि तथा निद्रा, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का त्याग करके रात-दिन मेरे ध्यान में निमग्न रहते हैं। नन्द जी! यह मेरे सर्वश्रेष्ठ भक्त के लक्षण हैं। अब मध्यम आदि भक्तों का लक्षण श्रवण करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केदार-कन्या का उपाख्यान इसी खण्ड में अन्यत्र देखना चाहिए।
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