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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 44
उनके अंग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा सुन्दर कुंकुम से अलंकृत थे। उन्होंने मालती की माला धारण कर रखी थी। उनका मस्तक श्रेष्ठ रत्नमय मुकुट से प्रकाशमान था। अग्निशोधित, अनुपम, अत्यन्त सूक्ष्म, सुन्दर, विचित्र और बहुमूल्य दो वस्त्रों से उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उन्होंने हाथ में रत्नमय दर्पण ले रखा था। अंजन से अंजित होने के कारण उनके नेत्रों की शोभा बढ़ गयी थी। पूर्ण प्रभाव से आच्छादित होने के कारण वे अत्यन्त मनोहर दिखायी देते थे। उनकी अवस्था अत्यन्त तरुण (नवीन) थी। वे भूषणभूषित रमणीय अंगों से बड़ी शोभा पा रहे थे। उस समय उन्होंने भगवान नारायण की आज्ञा से परम सुन्दर अनुपम रूप धारण रख रखा था। भगवान शंकर योगस्वरूप, योगेश्वर, योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु, स्वतन्त्र, गुणातीत तथा सनातन ब्रह्मज्योति हैं। वे गुणों के भेद से अनन्त भिन्न-भिन्न रूप धारण करते हैं, तथापि रूपरहित हैं। भवसागर में डूबे हुए प्राणियों का उद्धार करने वाले हैं तथा जगत की सृष्टि, पालन एवं संहार के कारण हैं। वे सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वेश्वर, सर्वजीवन तथा सबके साक्षी हैं। उनमें किसी प्रकार की इच्छा या चेष्टा नहीं है। वे परमानन्दस्वरूप, अविनाशी, आदि, अन्त और मध्य से रहित, सबके आदि कारण तथा सर्वरूप हैं। ऐसे दिव्य जमाता को देखकर आनन्दमग्न हुई मेना ने शोक को त्याग दिया। ‘सती धन्य है, धन्य है’– कहकर वहाँ आयी हुई युवतियों ने पार्वती के सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। कुछ कन्याएँ कहने लगीं– ‘अहो! दुर्गा बड़ी भाग्यशालिनी है।’ कुछ कामिनियाँ कामभाव से युक्त हो मौन एवं स्तब्ध रह गयीं और कितनी ही बोल उठीं– ‘अरी सखी! हमने अपने जीवन में ऐसा वर कभी नहीं देखा था।’ बाजे बजाने वालों ने भाँति-भाँति की कलाएँ दिखाते हुए वहाँ अनेक प्रकार के सुन्दर और मधुर वाद्य बजाये। इसी समय हिमवान के अन्तःपुर की परिचारिकाएँ दुर्गा को बाहर ले आयीं। वह रत्नमय सिंहासन पर बैठी थी। उसने सामने रत्नमयी वेदी शोभा पा रही थी। उसके मुख-मण्डल का कस्तूरी तथा स्निग्ध सिन्दूर के बिन्दुओं से श्रृंगार किया गया था। चारु चन्दन से चर्चित चन्द्रसदृश आभा वाले आनम्र भालदेश से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। श्रेष्ठ रत्नों के सार से निर्मित हार उसके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ा रहा था। वह त्रिलोचन शिव की ओर कनखियों से देख रही थी। उनके सिवा और कहीं उसकी दृष्टि नहीं जाती थी। उसके मुख पर अत्यन्त मन्द मुस्कान की आभा बिखरी हुई थी। वह कटाक्षपूर्वक देखने के कारण बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। उसकी भुजाएँ और हाथ रत्ननिर्मित केयूर, कड़े तथा कंगन से विभूषित थे। उसके कटिप्रदेश में रत्नों की बनी हुई करधनी शोभा दे रही थी। झनकारते हुए मंजीर चरणों का सौन्दर्य बढ़ाते थे। वह बहुमूल्य, तुलनारहित, विचित्र एवं कीमती दो वस्त्रों से सुशोभित थी। उसके सुन्दर कपोल श्रेष्ठ रत्नमय कुण्डलों से जगमगा रहे थे। दन्तपंक्ति मणि के सारभाग की प्रभा को छीने लेती थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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