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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 41
हिमालय ने कहा– मैं शिव के पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता। न रहने के लिये कोई घर है, न ऐश्वर्य। यहाँ तक कि उनके कोई स्वजन-बान्धव भी नहीं है। जो अत्यन्त निर्लिप्त योगी हो, उसके हाथ कन्या देना उचित नहीं है। आप लोग ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। अतः अपना सत्य एवं निश्चित मत प्रकट कीजिये। यदि पिता कामना, लोभ, भय अथवा मोह के वशीभूत हो सुयोग्य पात्र के हाथ में अपनी कन्या नहीं देता है तो सौ वर्षों तक नरक में पड़ा रहता है;[1] अतः मैं स्वेच्छा से शूलपाणि को अपनी कन्या नहीं दूँगा। ऋषियो! इस विषय में जो उचित कार्य हो; वह आप कीजिये। हिमवान की बात सुनकर वेद-वेदांगों के विद्वान ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ वेदोक्त मत प्रकट करने के लिये उद्यत हुए। वसिष्ठ जी ने कहा– शैलराज! लोक और वेद में तीन प्रकार के वचन कहे गये हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि से उन सभी वचनों को जानता है। पहला वचन वह है, जो वर्तमान काल में कानों को सुन्दर लगे और जल्दी समझ में आ जाये; किंतु पीछे असत्य और अहितकर सिद्ध हो। ऐसी बात केवल शत्रु कहता है। इससे कदापि हित नहीं होता। दूसरे प्रकार का वचन वह है, जो आरम्भ में सहसा दुःखजनक जान पड़े; परंतु परिणाम में सुख देने वाला हो। ऐसा वचन दयालु और धर्मशील पुरुष ही अपने भाई-बन्धुओं को समझाने के लिये कहता है। तीसरी उत्कृष्ट श्रेणी का वचन वह है जो कानों में पड़ते ही अमृत के समान मधुर प्रतीत हो तथा सर्वदा सुख की प्राप्ति कराने वाला हो। उसमें सारतत्त्व सत्य होता है और उसमें सबका हित होता है। ऐसा वचन सर्वश्रेष्ठ तथा सभी को अभीष्ट होता है। गिरिराज! इस प्रकार नीतिशास्त्र में तीन प्रकार के वचनों का निरूपण किया गया है। अब तुम्हीं कहो इन तीनों में से कौन-सा वचन तुमसे कहूँ? तुम्हें कैसी बात सुनने की इच्छा है? देवेश्वर शंकर वास्तव में बाह्य धन-सम्पत्ति से रहित हैं; क्योंकि उनका मन एकमात्र तत्त्वज्ञान के समुद्र में निमग्न रहता है। बाह्य धन-सम्पत्ति आपाततः रमणीय जान पड़ती है; परंतु वह बिजली की चमक की भाँति शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली है। नित्यानन्दस्वरूप स्वात्माराम परमेश्वर को इस तरह की सम्पत्ति के लिये क्या इच्छा होगी? गृहस्थ मनुष्य ऐसे पुरुष को अपनी पुत्री देता है, जो राज्य-वैभव से सम्पन्न हो। जिसके मन में स्त्री से द्वेष हो, ऐसे वर को कन्या देने वाला पिता कन्याघाती होता है; परंतु कौन कह सकता है कि भगवान शंकर दुःखी हैं? क्योंकि धनाध्यक्ष कुबेर भी उनके किंकर हैं। जो भगवान भ्रूभंग की लीला मात्र से सृष्टि का निर्माण एवं संहार करने में समर्थ हैं; जो ईश प्रकृति से परे, निर्गुण, परमात्मा एवं सर्वेश्वर हैं; जो समस्त जन्तुओं से निर्लिप्त और उनमें लिप्त भी हैं; जो अकेले ही समस्त सृष्टि के संहारकर्म तथा सृष्टिकर्म में भी समर्थ हैं एवं सर्वरूप हैं; निराकार, साकार, सर्वव्यापी और स्वेच्छामय हैं; जो ईश्वर स्वयं सृष्टिकार्य का सम्पादन करने के लिये तीन रूप धारण करते हैं तथा सृष्टिकर्ता ‘ब्रह्मा’, पालनकर्ता ‘विष्णु’ एवं संहारकर्ता ‘शिव’– नाम से प्रसिद्ध होते हैं; जो ‘ब्रह्मा’ –रूप से ब्रह्मलोक में, ‘विष्णु’ –रूप से क्षीरसागर में तथा ‘शिव’ –रूप से कैलास में वास करते हैं; वे परब्रह्म परमेश्वर ही ‘श्रीकृष्ण’ कहे गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नानुरूपाय पात्राय पिता कन्यां ददाति चेत्। कामाल्लोभाद्भयान्मोहाच्छताब्दं नरकं व्रजेत्।। (41। 49)
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