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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 21
इस स्तवराज से स्तुति करके इन्द्र ने श्रीहरि को भय से प्रणाम किया। पूर्वकाल में वृत्रासुर के साथ युद्ध के समय गुरु बृहस्पति ने इन्द्र को यह स्तोत्र दिया था। सबसे पहले श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को कृपापूर्वक एकादशाक्षर-मन्त्र, सब लक्षणों से युक्त कवच और यह स्तोत्र दिया था। फिर ब्रह्मा ने पुष्कर में कुमार को, कुमार ने अंगिरा को और अंगिरा ने बृहस्पति को इसका उपदेश दिया था। इन्द्र द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और अन्त में निश्चय ही उनका दास्य-सुख प्राप्त कर लेता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और शोक से छुटकारा पा जाता है और स्वप्न में भी कभी यमदूत तथा यमलोक को नहीं देखता।[1] भगवान नारायण कहते हैं– इन्द्र का वचन सुनकर भगवान् लक्ष्मीनिवास प्रसन्न हो गये और उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें वर देकर उस पर्वत को वहाँ स्थापित कर दिया। श्रीहरि को प्रणाम करके इन्द्र अपने गणों के साथ चले गये; तदनन्तर गुफा में छिपे हुए लोग वहाँ से निकलकर अपने घर को गये। उन सबने श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम परमात्मा माना। व्रजवासियों को आगे करके श्रीकृष्ण अपने घर को गये। नन्द के सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया। उनके नेत्रों में भक्ति के आँसू भर आये और उन्होंने सनातन पूर्णब्रह्मस्वरूप अपने उस पुत्र का स्तवन किया। नन्द बोले– जो ब्राह्मणों के हितकारी, गौओं तथा ब्राह्मणों के हितैषी तथा समस्त संसार का भला चाहने वाले हैं; उन सच्चिदानन्दमय गोविन्द देव को बारंबार नमस्कार है। प्रभो! आप ब्राह्मणों का प्रिय करने वाले देवता हैं; स्वयं ही ब्रह्म और परमात्मा हैं; आपको नमस्कार है। आप अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड धार्मों के भी धाम हैं; आपको सादर नमस्कार है। आप मत्स्य आदि रूपों के जीवन तथा साक्षी हैं; आप निर्लिप्त, निर्गुण और निराकार परमात्मा को नमस्कार है। आपका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। आप स्थूल से भी अत्यन्त स्थूल हैं। सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा तेजोमय हैं; आपको नमस्कार है। अत्यन्त सूक्ष्म-स्वरूपधारी होने के कारण आप योगियों के भी ध्यान में नहीं आते हैं; ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी आपकी वन्दना करते हैं; आप नित्य-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। आप चार युगों में चार वर्णों का आश्रय लेते हैं; इसलिये युग-क्रम से शुक्ल, रक्त, पीत और श्याम नामक गुण से सुशोभित होते हैं; आपको नमस्कार है। आप योगी, योगरूप और योगियों के भी गुरु हैं। सिद्धेश्वर, सिद्ध एवं सिद्धों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शेषनाग, धर्म, सूर्य, गणेश, षडानन, सनकादि समस्त मुनि, सिद्धेश्वरों के गुरु के भी गुरु कपिल तथा नर-नारायण ऋषि भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं; उन परात्पर प्रभु का स्तवन दूसरे कौन-से जड़बुद्धि प्राणी कर सकते हैं? वेद, वाणी, लक्ष्मी, सरस्वती तथा राधा भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकतीं; उन्हीं का स्तवन दूसरे विद्वान पुरुष क्या कर सकते हैं? ब्रह्मन! मुझसे क्षण-क्षण में जो अपराध बन रहा है, वह सब आप क्षमा करें। करुणासिन्धो! दीनबन्धो! भवसागर में पड़े हुए मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये। प्रभो! पूर्वकाल में तीर्थस्थान में तपस्या करके मैंने आप सनातन पुरुष को पुत्ररूप में प्राप्त किया है। अब आप मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति और दास्य प्रदान कीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तकम्।।
भक्तध्यानाय सेवायै नानारूपधरं वरम्। शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च।।
शुक्लतेजःस्वरूपं च सत्ये सत्यस्वरूपिणम्। त्रेतायां कुङ्कुमाकारं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा।।
द्वापरे पीतवर्णं च शोभितं पीतवाससा। कृष्णवर्णं कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं प्रभुम्।।
नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम्। नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं प्रभुम्।।
गोपिकाचेतनहरं राधाप्राणाधिकं परम्। विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन च।।
रूपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम्। कन्दर्पकोटिसौन्दर्यं बिभ्रन्तं शान्तीश्वरम्।।
क्रीडन्तं राधया सार्धं वृन्दारण्ये च कुत्रचित्। कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये राधावक्षःस्थलस्थितम्।।
जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह कुत्रचित्। राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं कुत्रचिद् वने।।
कुत्रचिद्राधिकापादे दत्तवन्तमलक्तकम्। राधाचर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं कुत्रचिन्मुदा।।
पश्यन्तं कुत्रचिद्राधां पश्यन्तीं वक्रचक्षुषा। दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च कुत्रचित्।।
कुत्रचिद्राधया सार्धं गच्छन्तं रासमण्डलम्। राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च कुत्रचित्।।
सार्धं गोपालिकाभिश्च विहरन्तं च कुत्रचित्। राधां गृहीत्वा गच्छन्तं विहाय तां च कुत्रचित्।।
विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च कुत्रचित्। भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह कुत्रचित्।।
वस्त्रं गोपालिकानां च हरन्तं कुत्रचिन्मुदा। गवाङ्गणं व्याहरन्तं कुत्रचिद् बालकैः सह।।
कालीयमूर्ध्निपादाब्जं दत्तवन्तं च कुत्रचित्। विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कुत्रचिन्मुदा।।
गायन्तं रम्यसंगीतं कुत्रचिद् बालकैः सह। स्तुत्वा शक्रः स्तवेन्द्रेण प्रणनाम हरिं भिया।।
पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण च। कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च तपस्यते।।
एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वलक्षणम्। दत्तमेतत् कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा पुरा।।
कुमारोऽङ्गिरसे दत्तो गुरुवेऽङ्गिरसा मुने। इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत्।।
इह प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते भक्तिमन्ते दास्यं लभेद् ध्रुवम्। जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो मुच्यते नरः।।
न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं यमालयम्।।-(21। 176-196)
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