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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 20
वे बार-बार उन्हें देखने और प्रणाम करने लगे। उन्होंने अपने हृदयकमल में जिस रूप को देखा था, वही उन्हें बाहर भी दिखायी दिया। जो मूर्ति सामने थी, वही पीछे और अगल-बगल में भी दृष्टिगोचर हुई। मुने! वहाँ वृन्दावन में सब कुछ श्रीकृष्ण के ही तुल्य देख जगद्गुरु ब्रह्मा उसी रूप का ध्यान करते हुए वहाँ बैठ गये। गौएँ, बछड़े, बालक, लता, गुल्म और वीरुध आदि सारा वृन्दावन ब्रह्मा जी को श्यामसुन्दर के ही रूप में दिखायी दिया। यह परम आश्चर्य देखकर ब्रह्माजी ने फिर ध्यान लगाया। अब उन्हें सारी त्रिलोकी श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ भी नहीं दिखायी दी। कहाँ गये वृक्ष? कहाँ हैं पर्वत? कहाँ गयी पृथ्वी? कहाँ हैं समुद्र? कहाँ देवता कहाँ गन्धर्व? कहाँ मुनीन्द्र और मानव? कहाँ आत्मा? कहाँ जगत का बीज तथा कहाँ स्वर्ग और गौएँ हैं? श्रीहरि की माया से ब्रह्मा जी ने सब कुछ अपनी आँखों से देखा और सबको कृष्णमय पाया। कहाँ जगदीश्वर श्रीकृष्ण और कहाँ माया की विभूतियाँ? सबको श्रीकृष्णमय देखकर ब्रह्मा जी कुछ भी बोलने में असमर्थ हो गये– किस तरह स्तुति करूँ? क्या करूँ? इस प्रकार मन-ही-मन विचार करके जगद्धाता ब्रह्मा वहीं बैठकर जप करने को उद्यत हुए। उन्होंने सुखपूर्वक योगासन लगाकर दोनों हाथ जोड़ लिये। उनके सारे अंग पुलकित हो गये। नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी और वे अत्यन्त दीन के समान हो गये। तदनन्तर उन्होंने इडा, सुषुम्णा, मध्या, पिंगला, नलिनी और धुरा– छः नाड़ियों को प्रयत्नपूर्वक योग द्वारा निबद्ध किया। तत्पश्चात मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा– इन छः चक्रों को निबद्ध किया। फिर कुण्डलिनी द्वारा एक-एक चक्र का लंघन कराते हुए क्रमशः छहों चक्रों का भेदन करके विधाता उसे ब्रह्मरन्ध्र में ले आये। तदनन्तर उन्होंने ब्रह्मरन्ध्र को वायु से पूर्ण किया। प्राणवायु को वहाँ निबद्ध करके पुनः उसे क्रमशः हृदयकमल में मध्या नाड़ी के पास ले आये। उस वायु को घुमाकर विधाता ने मध्या नाड़ी के साथ संयुक्त कर दिया। ऐसा करके वे निष्पन्द (निश्चल) हो गये और पूर्वकाल में श्रीहरि ने जिसका उपदेश दिया था, उस परम उत्तम दशाक्षर-मन्त्र का जप करने लगे। मुने! श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों का ध्यान करते हुए एक मुहूर्त तक जप करने के पश्चात ब्रह्मा ने अपने हृदयकमल में उनके सर्वतेजोमय स्वरूप को देखा। उस तेज के भीतर अत्यन्त मनोरम रूप था, दो भुजाएँ, हाथ में मुरली और पीताम्बर भूषित श्रीअंग। कानों के मूलभाग में पहने गये मकराकृति कुण्डल अपनी उज्ज्वल आभा बिखेर रहे थे। प्रसन्न मुखारविन्द पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। भगवान भक्त पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते थे। ब्रह्मा जी ने ब्रह्मरन्ध्र में जिस रूप को देखा और हृदयकमल में जिसकी झाँकी की, वही रूप बाहर भी दृष्टिगोचर हुआ। वह परम आश्चर्य देखकर उन्होंने उन परमेश्वर की स्तुति की। मुने! पूर्वकाल में एकार्णव के जल में शयन करने वाले श्रीहरि ने ब्रह्मा जी को जिस स्तोत्र का उपदेश दिया था, उसी के द्वारा विधाता ने भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर उन परमेश्वर का विधिवत स्तवन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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