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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 17
महामुने! जो वैष्णव न हो तथा वैष्णवों का निन्दक हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो मनुष्य जीवनभर तीनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसकी यहाँ राधा-माधव के चरणकमलों में भक्ति होती है। अन्त में वह उन दोनों का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और दिव्य शरीर एवं अणिमा आदि सिद्धि को पाकर सदा उन प्रिया-प्रियतम के साथ विचरता है। नियमपूर्वक किये गये सम्पूर्ण व्रत, दान और उपवास से, चारों वेदों के अर्थसहित पाठ से, समस्त यज्ञों और तीर्थों के विधिबोधित अनुष्ठान तथा सेवन से, सम्पूर्ण भूमि की सात बार की गयी परिक्रमा से, शरणागत की रक्षा से, अज्ञानी को ज्ञान देने से अथवा देवताओं और वैष्णवों का दर्शन करने से भी जो फल प्राप्त होता है, वह इस स्तोत्रपाठ की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है। इस स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है।[1] नारद जी ने कहा– प्रभो! यह सर्वदुर्लभ परम आश्चर्यमय स्तोत्र मुझे प्राप्त हुआ। देवी श्रीराधा का ‘संसारविजय’ नामक कवच भी उपलब्ध हुआ। सुयज्ञ ने जिसका प्रयोग किया था, वह दुर्लभ स्तोत्र भी मुझे सुलभ हो गया। भगवान श्रीकृष्ण की विचित्र कथा सुनकर आपके चरणकमलों के प्रसाद से मैंने बहुत कुछ पा लिया। अब मैं जिस रहस्य को सुनना चाहता हूँ, उसका वर्णन कीजिये। मुने! वृन्दावन में प्रातःकाल उस अद्भुत नगर को देखकर गोपों ने क्या कहा? भगवान श्रीनारायण बोले– नारद! जब वहाँ रात बीत गयी, विश्वकर्मा चले गये और अरुणोदय की बेला आयी, तब सब लोग जाग उठे। उठते ही सबसे विलक्षण उस नगर को देख व्रजवासी आपस में कहने लगे– ‘यह क्या आश्चर्य है?’ यह क्या आश्चर्य है? किन्हीं गोपों ने कुछ अन्य गोपों से पूछा- ‘यह कैसे सम्भव हुआ? न जाने भूतल पर किस रूप से कौन प्रकट हो सकता है?’ परंतु नन्दराय जी गर्ग के वाक्यों का स्मरण करके मन-ही-मन सब कुछ जान गये। उन्होंने भीतर-ही-भीतर विचार किया- ‘यह समस्त चराचर जगत श्रीहरि की इच्छा से ही उत्पन्न हुआ है। जिनके भ्रूभंग की लीलामात्र से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सारा जगत आविर्भूत और तिरोभूत होता रहता है, उनके लिये क्या और कैसे असाध्य है? अहो! जिनके रोमकूपों में ही सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं, उन परमेश्वर महाविष्णु श्रीहरि के लिये क्या असाध्य हो सकता है? ब्रह्मा, शेषनाग, शिव और धर्म जिनके चरणारविन्दों का दर्शन करते रहते हैं, उन माया-मानव-रूपधारी परमेश्वर के लिये कौन-सा ऐसा कार्य है, जो असाध्य हो?’ नन्द जी ने उस नगर में घूम-घूमकर, एक-एक घर को देख-देखकर और वहाँ लिखे हुए नामों को पढ़कर सबके लिये घरों का वितरण किया। नन्द और वृषभानु ने शुभ मुहूर्त देखकर प्रवेश कालिक मंगलकृत्य का सम्पादन करके अपने सेवकगणों के साथ अपने-अपने आश्रम में प्रवेश किया। वृन्दावन में रहकर उन सबके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उन सब गोपों ने बड़े आनन्द के साथ अपने-अपने उत्तम आश्रम में पदार्पण किया। अपने-अपने मनोहर स्थान पर सब गोपों को बड़ा आनन्द मिला। वहाँ के बालक और बालिकाएँ हर्षपूर्वक खेलने-कूदने लगीं। श्रीकृष्ण और बलदेव भी कौतूहलवश गोप शिशुओं के साथ वहाँ प्रत्येक मनोहर स्थान पर बालोचित क्रीड़ा करने लगे। नारद! इस प्रकार मैंने नगर-निर्माण का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वन में गोप बालाओं के लिये जो रासमण्डल बना था, उसकी भी बात बतायी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी। कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी।।
कृष्णवामाङ्गसम्भूता परमानन्दरूपिणी। कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी।।
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शरच्चन्द्रप्रभानना। नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च।।
राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः। स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता।।
रासेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता। रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी।।
सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा। प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम्।।
प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः। कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता।।
कृष्णस्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा। सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता।।
कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया। सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी।।
वामाङ्गार्द्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती। कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता।।
परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती। श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी।।
कृषिर्मोक्षार्थवचनो ण एवोत्कृष्टवाचकः। आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता।।
अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावती स्मृता। वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता।।
सङ्घः सखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्तिवाचकः। सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता।।
वृन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै। वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम्।।
नखचन्द्रावलीवक्त्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम्। तेन चन्द्रावली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता।।
कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम्। मुनिना कीर्तिता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना।।
इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम्। नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे।।
ब्रह्मणा च पुरा दत्तं धर्माय जनकाय मे। धर्मेण कृपया दत्तं मह्यमादित्यपर्वणि।।
पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि।।
राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा। इदं स्तोत्रं महापुण्यं तुभ्यं दत्तं मया मुने।।
निन्दकायावैष्णवाय न दातव्यं महामुने। यावज्जीवमिदं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।।
राधामाधवयोः पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह। अन्ते लभेत्तयोर्दास्यं शश्वत्सहचरो भवेत्।।
अणिमादिकसिद्धि च संप्राप्य नित्यविग्रहम्। व्रतदानोपवासैश्च सर्वैर्नियमपूर्वकैः।।
चतुर्णां चैव वेदानां पाठः सर्वार्थसंयुतैः। सर्वेषां यज्ञतीर्थानां करणैर्विधिबोधितैः।।
प्रदक्षिणेन भूमेश्च कृत्स्नाया एव सप्तधा। शरणागतरक्षायामज्ञानां ज्ञानदानतः।।
देवानां वैष्णवानां च दर्शनेनापि यत् फलम्। तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्।।
स्तोत्रस्यास्य प्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः।-(17। 220-246)
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