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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 6
राधिका ने कहा– नाथ! मैं कुछ कहना चाहती हूँ। प्रभो! इस दासी की बात सुनो। मेरे प्राण चिन्ता से निरन्तर जल रहे हैं, चित्त चंचल हो रहा है। तुम्हारी ओर देखते समय मैं पलभर के लिये आँख बंद करने या पलक मारने में भी असमर्थ हो जाता हूँ। फिर प्राणनाथ! तुम्हारे बिना भूतल पर अकेली कैसे जाऊँगी? प्राणेश्वर! जीवनबन्धो! सच बताओ, वहाँ गोकुल में कितने काल के पश्चात तुम्हारे साथ मेरा अवश्यक मिलन होगा। तुम्हें देखे बिना एक निमेष भी मेरे लिये सौं युगों के समान प्रतीत होगा। वहाँ मैं किसे देखूँगी? कहाँ जाऊँगी? और कौन मेरी रक्षा करेगा? प्राणेश! तुम्हारे सिवा दूसरे किसी पिता, माता, भाई, बन्धु, बहिन अथवा पुत्र का मैं क्षणभर भी चिन्तन नहीं करती हूँ। मायापते! यदि तुम भूतल पर मुझे भेजकर माया से आच्छन्न कर देना चाहते हो, वैभव देकर भुलाना चाहते हो तो मेरे समक्ष सच्ची प्रतिज्ञा करो। मधुसूदन! मेरा मनरूपी मधुप तुम्हारे मकरन्दयुक्त चरणारविन्द में ही नित्य-निरन्तर भ्रमण करता रहे। जहाँ-जहाँ जिस योनि में भी मेरा यह जन्म हो, वहाँ-वहाँ तुम मुझे अपना स्मरण एवं मनोवांछित दास्यभाव प्रदान करोगे। मैं भूतल पर कभी भी इस बात को न भूलूँ कि तुम मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण हो, मैं तुम्हारी प्रेयसी राधिका हूँ तथा हम दोनों का प्रेमसौभाग्य शाश्वत है। प्रभो! यह उत्तम वर मुझे अवश्य दो। जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म एवं जीवन एक-दूसरे के साथ बीते। विभो! यह श्रेष्ठ वरदान मुझे दे दो। भगवन! भूतल पर पहुँचकर भी कहीं हम दोनों का पलभर के लिये भी वियोग न हो। यह वर मुझे दो। हरे! मेरे प्राणों से ही तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ है– मेरे प्राण तुम्हारे श्रीअंगों से विलग नहीं है। मेरी इस धारणा का कौन निवारण कर सकता है? मेरे शरीर से ही तुम्हारी मुरली बनी है और मेरे मन से ही तुम्हारे चरणों का निर्माण हुआ है। तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी मुरली को अपना शरीर मानती हूँ और मेरा मन तुम्हारे चरणों से कभी विलग नहीं होता है। संसार में कितने ही ऐसे स्त्री-पुरुष हैं, जो सामने एक-दूसरे की स्तुति करते हैं; परंतु कहीं भी अपने प्रियतम में निरन्तर आसक्त रहने वाली मुझ-जैसी प्रेयसी नहीं है। तुम्हारे शरीर के आधे भाग से किसने मेरा निर्माण किया है? हम दोनों में भेद है ही नहीं। अतः मेरा मन निरन्तर तुम्हीं में लगा रहता है। मेरी आत्मा, मेरा मन और मेरे प्राण जिस तरह तुम में स्थापित हैं, उसी तरह तुम्हारे मन, प्राण और आत्मा भी मुझसे ही स्थापित हैं। अतः विरह की बात कान में पड़ते ही आँखों का पलक गिरना बंद हो गया है और हम दोनों आत्माओं के मन, प्राण निरन्तर दग्ध हो रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले– देवि! उत्तम आध्यात्मिक योग शोक का उच्छेद करने वाला होता है। अतः उसे बताता हूँ, सुनो। यह योग योगीन्द्रों के लिये भी दुर्लभ है। सुन्दरि! देखो, सारा ब्रह्माण्ड आधार और आधेय के रूप में विभक्त है। इनमें भी आधार से पृथक् आधेय की सत्ता सम्भव नहीं है। फल का आधार है फूल, फूल का आधार है पल्लव, पल्लव का आधार है तना या डाली तथा उसका भी आधार स्वयं वृक्ष है। वृक्ष का आधार अंकुर है, जो बीज की शक्ति से सम्पन्न होता है। उस अंकुर का आधार बीज है, बीज का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी के आधार शेषनाग हैं। शेष के आधार कच्छप हैं, कच्छप का आधार वायु है और वायु का आधार मैं हूँ। मेरी आधारस्वरूपा तुम हो; क्योंकि मैं सदा तुममें ही स्थित रहता हूँ। तुम शक्तियों का समूह और मूलप्रकृति ईश्वरी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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