ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 41
नारद! परशुराम ने उस आश्रम के प्रधान द्वार के दाहिनी ओर वृषेन्द्र को और बायीं ओर सिंह तथा नन्दीश्वर, महाकाल, भंयकर पिंगलाक्ष, विशालाक्ष, बाण, महाबली विरूपाक्ष, विकाटक्ष, भास्कराक्ष, रक्ताक्ष, विकटोदर, संहारभैरव, भयंकर कालभैरव, रुरुभैरव, ईशकी-सी आभावाले महाभैरव, कृष्णांगभैरव, दृढपराक्रमी क्रोधभैरव, कपालभैरव, रुद्रभैरव तथा सिद्धेन्द्रों, रुद्रगणों, विद्याधरों, गुह्यकों, भूतों, प्रेतों, पिशाचों, कूष्माण्डों, ब्रह्मराक्षसों, वेतालों, दानवों, जटाधारी योगीन्द्रों, यक्षों, किंपुरुषों और किन्नरों को देखा। उन्हें देखकर भृगुनन्दन ने उनके साथ वार्तालाप किया। फिर नन्दिकेश्वर की आज्ञा ले वे प्रसन्न मन से भीतर घुसे। आगे बढ़ने पर उन्हें बहुमूल्य रत्नों के बने हुए सैकड़ों मन्दिर दीख पड़े, जो अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित चमचमाते हुए कलशों से सुशोभित थे। अमूल्य रत्नों के बने हुए किवाड़, जिनमें हीरे जड़े हुए थे और मोतियाँ एवं निर्मल शीशे लगे हुए थे, उन मन्दिरों की शोभा बढ़ा रहे थे। उनमें गोरोचना नामक मणियों के हजारों खंभे लगे थे और वे मणियों की सीढ़ियों से सम्पन्न थे। परशुराम ने उनके भीतरी द्वार को देखा, जो नाना प्रकार की चित्रकारी से चित्रित तथा हीरे-मोतियों की गुँथी हुई मालाओं से सुशोभित था। उसकी बायीं ओर कार्तिकेय और दाहिनी ओर गणेश तथा शिव-तुल्य पराक्रमी विशालकाय वीरभद्र दीख पड़े। नारद! वहाँ प्रधान-प्रधान पार्षद और क्षेत्रपाल भी रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्ननिर्मित सिंहासनों पर बैठे हुए थे। महान बल-पराक्रम से सम्पन्न भृगुवंशी परशुराम उन सबसे सम्भाषण करके हाथ में फरसा लिये हुए शीघ्र ही आगे बढ़ने को उद्यत हुए। उन्हें आगे बढ़ता देखकर गणेश ने कहा– ‘भाई! क्षणभर ठहर जाओ। इस समय महादेव निद्रा के वशीभूत होकर शयन कर रहे हैं। मैं उन ईश्वर की आज्ञा लेकर यहाँ आता हूँ और तुम्हें साथ लिवा ले चलूँगा। इस समय रुक जाओ।’ गणेश की बात सुनकर महाबली परशुराम, जो बृहस्पति के समान वक्ता थे, कहने के लिये उद्यत हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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