ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 7
श्रीविष्णु ने कहा– धर्मिष्ठे! धर्मकर्म के विषय में तुम अपने धर्म की रक्षा करो; क्योंकि धर्मज्ञे! अपने धर्म का पूर्णतया पालन करने पर सबकी रक्षा हो जाती है। ब्रह्मा ने कहा– धर्मज्ञे! जो किसी कारणवश धर्म की रक्षा नहीं करता है तो धर्म के नष्ट हो जाने पर उसके कर्त्ता का विनाश हो जाता है। धर्म ने कहा– साध्वि! पति को दक्षिणारूप में देकर यत्नपूर्वक मेरी रक्षा करो। महासाध्वि! मेरे सुरक्षित रहने पर सब कुछ कल्याण ही होगा। देवताओं ने कहा– महासाध्वि! तुम धर्म की रक्षा करके अपने व्रत को पूर्ण करो। सती! तुम्हारे व्रत के पूरा हो जाने पर हमलोग तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण कर देंगे। मुनियों ने कहा– पतिव्रते! हवन को पूरा करके ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करो। धर्मज्ञे! हमलोगों के उपस्थित रहते अमंगल कैसे होगा? सनत्कुमार ने कहा– शिवे! या तो तुम मुझे शिव को दक्षिणारूप में दे दो, अन्यथा इस व्रत के फल को तथा चिरकाल से संचित अपनी तपस्या के फल को भी छोड़ दो। साध्वि! इस प्रकार कर्म के दक्षिणा रहित हो जाने पर मैं इस व्रत के फल को तथा यजमान के सारे कर्मों के फल को पा जाऊँगा। तब पार्वती जी बोलीं– देवेश्वरो! जिस कर्म में पति की ही दक्षिणा दी जाती है, उस कर्म से मुझे क्या लाभ? मुने! दक्षिणा देने से तथा दर्म और पुत्र की प्राप्ति से भी मेरा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? भला, यदि भूमि की पूजा न की जाये तो वृक्ष के पूजन से क्या फल मिलेगा? क्योंकि कारण के नष्ट हो जाने पर कार्य की स्थिति कहाँ और फिर अन्न तथा फल कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं? यदि स्वेच्छानुसार प्राणों का ही त्याग कर दिया जाये तो फिर शरीर से क्या प्रयोजन है? जिसकी दृष्टिशक्ति ही नष्ट हो गयी हो, उस आँख से क्या लाभ? सुरेश्वरो! पतिव्रताओं के लिये पति सौ पुत्रों के समान होता है। ऐसी दशा में यदि व्रत में पति को ही दे देना है तो उस व्रत से अथवा (व्रत के फलस्वरूप) पुत्र से क्या सिद्ध होगा? माना कि पुत्र पति का वंश होता है, किंतु उसका एकमात्र मूल तो पति ही है। भला, जहाँ मूलधन ही नष्ट हो जाये वहाँ उसका सारा व्यापार तो निष्फल हो ही जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |