ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 54
जितने समय में प्रकृति का एक दिन होता है, उतने समय तक वृन्दावन में परमात्मा श्रीकृष्ण को नींद लगी रहती है। वहाँ बहुमूल्य रत्नों का पर्यंक बिछा होता है, जो अग्निशुद्ध चिन्मय वस्त्रों से आच्छादित होता है। गन्ध, चन्दन और फूलों की वायु से वह पर्यंक सुवासित रहता है। उसी पर श्यामसुन्दर शयन करते हैं। उनके पुनः जागने पर सारी सृष्टि का कार्य आरम्भ होता है। उन निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण का वन्दन, स्मरण, ध्यान, पूजन और गुण-कीर्तन महापातकों का नाश करने वाला है। महाराज! मैंने मृत्युंजय महादेव के मुख से जैसा सुना था और आगमों में जो कुछ कहा गया है, उसके अनुसार वह सब कुछ बता दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? सुयज्ञ ने पूछा– ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने पर समस्त लोकों के संहारकारी कालाग्निरुद्र, तमोगुण तथा सत्त्वगुण यदि मृत्युंजय शिव में विलीन होते हैं तथा यदि उस प्राकृत लय की बेला में शिव निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण में लीन होते हैं, तो आपके गुरु भगवान शिव का नाम श्रुति में मृत्युंजय क्यों रखा गया? तथा जिनके रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड निवास करते हैं, उन महाविष्णु की जननी यह मूलप्रकृति कैसे हुई? सुतपा बोले– नरेश्वर! ब्रह्मा जी की आयु पूर्ण होने पर ब्रह्मा आदि समस्त लोकों का संहार करने वाली मृत्युकन्या जलबिम्ब की भाँति नष्ट हो जाती है। ऐसी कितनी ही मृत्युकन्याओं और करोड़ों ब्रह्माओं का लय हो जाने पर यथासमय भगवान शिव सत्त्वरूपधारी निर्गुण श्रीकृष्ण में लीन होते हैं। मेरे गुरु भगवान शिव ने मृत्युकन्या पर सदा ही विजय पायी है। परंतु मृत्यु ने कभी शिव को पराजित नहीं किया है। यह बात प्रत्येक कल्प में श्रुतियों द्वारा सुनीय गयी है। अतः भगवान शिव का मृत्युंजय नाम उचित ही है। नरेश्वर! शम्भु, नारायण और प्रकृति– इन तीनों नित्य तत्त्वों का नित्य परमात्मा श्रीकृष्ण में लय होना लीलामात्र है, वास्तविक नहीं है। स्वयं निर्गुण परमपुरुष परमात्मा ही काल के अनुसार सगुण होते हैं। वे स्वयं ही माया से नारायण, शिव एवं प्रकृति के रूप में प्रकट होते हैं; अतः सदा उनके समान ही हैं। जैसे अग्नि और उसकी चिनगारियों में भेद नहीं हैं। वैसे ही नारायण आदि तथा श्रीकृष्ण में कोई अन्तर नहीं है। ब्रह्मा जी के द्वारा प्रत्येक कल्प में जिन-जिन रुद्र, आदित्य आदि की सृष्टि हुई है, वे सब मृत्युकन्या से पराजित होने के कारण नश्वर हैं। परंतु शिव की सृष्टि ब्रह्मा जी ने नहीं की है। शिव सत्य, नित्य एवं सनातन हैं। भूमिपाल! उनके निमेषमात्र में कितने ही ब्रह्माओं का पतन हो जाता है। आदिसर्ग में जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने प्रकृति के भीतर वीर्या का आधान किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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