ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 47
कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बाँधने के खंभे, शालग्राम की मूर्ति, जल अथवा अग्नि में देवी सुरभी की भावना करके द्विज इनकी पूजा करें। जो दीपमालिका के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में भक्तिपूर्वक भगवती सुरभी की पूजा करेगा, वह जगत में पूज्य हो जाएगा। एक बार वाराहकल्प में देवी सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय त्रिलोकी में दूध का अभाव हो गया था। तब देवता अत्यन्त चिन्तित होकर ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। तदनन्तर ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर इन्द्र ने देवी सुरभी की स्तुति आरम्भ की। इन्द्र ने कहा– देवी एवं महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। जगदम्बिके! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हें बार-बार नमस्कार है। श्रीकृष्ण-प्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी देवी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।[1] इस प्रकार स्तुति सुनते ही सनातनी जगज्जननी भगवती सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न हो उस ब्रह्मलोक में ही प्रकट हो गयीं। देवराज इन्द्र को परम दुर्लभ मनोवांछित वर देकर वे पुनः गोलोक को चली गयीं। देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये। नारद! फिर तो सारा विश्व सहसा दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए। जो मानव इस महान पवित्र स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह गोधन से सम्पन्न, प्रचुर सम्पत्ति वाला, परम यशस्वी और पुत्रवान हो जाएगा। उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने तथा अखिल यज्ञों में दीक्षित होने का फल सुलभ होगा। ऐसा पुरुष इस लोक में सुख भोगकर अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के धाम में चला जाता है। चिरकाल तक वहाँ रहकर भगवान की सेवा करता रहता है। नारद! उसे पुनः इस संसार में नहीं आना पड़ता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुरन्दर उवाच–
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः। गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके ।।
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नमः। नमः कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः ।।
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परम्। श्रीदायै धनदायै च वृद्धिदायै नमो नमः ।।
शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नमः। यशोदायै कीर्तिदायै धर्मज्ञायै नमो नमः ।।
(प्रकृतिखण्ड 47। 24-27)
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