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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
पाणिवाद
व्यास ने मानवी पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का उत्पादन करते हुए इन्द्र के मुख से पाणिवाद का व्याख्या कराया है। जिनके पास हाथ हैं, वे क्या नही कर सकते? जिनके हाथ हैं, वे ही सिद्धार्थ हैं। जिनके हाथ हैं, उनकी मैं सबसे अधिक सराहना करता हूं- जैसे तुम धन चाहा करते हो, वैसे में तो पाँच अंगुलियों वाले हाथ चाहता हूँ। पाणि लाभ से बढ़कर और कोई लाभ नहीं है।[1] जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही लाभ मिलता है, यही शास्त्रों का निचोड़ हैः किन्तु धनागम धर्म से होना चाहिए। व्यास जी के मन में धर्म का ऊँचा स्थान है, उसके अनुसार न केवल अर्थ वरन् काम और मोक्ष भी धर्म पर आश्रित हैं और यह राज्य भी धर्ममूलक है। व्यास जी ने नगद धर्म पर बल दिया है। वे कहते हैं- मनुष्य लोक में ही जो कल्याण है उसे मैं अच्छा मानता हूँ।[3] व्यास जी की दृष्टि में वह व्यक्ति अधूरा है जो लोक से दूर रहता है। ‘जो मनुष्य स्वयं अपनी आँखों से लोक का ज्ञान प्राप्त करता है, वही सब कुछ जान सकता है’: व्यास की दृष्टि में लोक संग्रह और लोक धर्म बहुत मूल्यवान पदार्थ हैं। आजगर मुनि को ‘लोक धर्म विधानवित्’ अर्थात लोक धर्म के सिद्धान्त और संगठन का वेत्ता[6] कहा गया है। जो व्यक्ति लोक-पक्ष का इतना समर्थक हो उसे गृहस्थ धर्म का प्रशंसक होना ही चाहिये। व्यास के अनुसार धर्म के द्वारा प्रवृत्त गृहस्थ आश्रम सब आश्रमों में तेजस्वी मार्ग है, वह पवित्र धर्म है जिसकी उपासना करनी चाहिए।[7] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अहो सिद्धार्थता तेषा येषा सन्तीह पाणयः।
अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः।।
पाणिमद्भयः स्पृहास्माकं यथा तब धनस्य वै।
न पाणिलाभदधिको लाभः कश्चन विद्यते।।(शान्तिपर्व 180। 11, 12) - ↑ (शांति. 279। 20)
- ↑ (मनुष्यलोकेयच्छ्रेयः परं मन्ये युधिष्ठिर, वनपर्व 183। 88)
- ↑ (उधोगपर्व 43। 36)
- ↑ (वन. 4। 4)
- ↑ (शा. 179। 9)
- ↑ सर्वा श्रमपदेप्याहुर्गार्हस्थ्यं दीप्तनिर्णयम्।
पावनं पुरुषव्याघ्र यं धर्म पर्युपासते।।(शा. 66। 35)
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