पतिव्रते! सबसे पहले भगवान धन्वन्तरि ने ‘चिकित्सा-तत्त्वविज्ञान’ नामक एक मनोहर तन्त्र का निर्माण किया। फिर दिवोदास ने ‘चिकित्सा-दर्पण’ नामक ग्रन्थ बनाया। काशिराज ने ‘दिव्य चिकित्सा-कौमुदी’ का प्रणयन किया। दोनों अश्विनीकुमारों ने ‘चिकित्सा-सारतन्त्र’ की रचना की, जो भ्रम का निवारण करने वाला है। नकुल ने ‘वैद्यकसर्वस्व’ नामक तन्त्र बनाया। सहदेव ने ‘व्याधिसिन्धुविमर्दन’ नामक ग्रन्थ तैयार किया। यमराज ने ‘ज्ञानार्णव’ नामक महातन्त्र की रचना की।
भगवान च्यवन मुनि ने ‘जीवदान’ नामक ग्रन्थ बनाया। योगी जनक ने ‘वैद्यसंदेहभञ्जन’ नामक ग्रन्थ लिखा। चन्द्रकुमार बुध ने ‘सर्वसार’, जाबाल ने ‘तन्त्रसार’ और जाजलि मुनि ने ‘वेदांगसार’ नामक तन्त्र की रचना की। पैल ने ‘निदानतन्त्र’, करथ ने उत्तम ‘सर्वधर-तन्त्र’ तथा अगस्त्य जी ने ‘द्वैधनिर्णय’ तन्त्र का निर्माण किया। ये सोलह तन्त्र चिकित्सा-शास्त्र के बीज हैं, रोग-नाश के कारण हैं तथा शरीर में बल का आधान करने वाले हैं। आयुर्वेद के समुद्र को ज्ञानरूपी मथानी से मथकर विद्वानों ने उससे नवनीत-स्वरूप ये तन्त्र–ग्रन्थ प्रकट किये हैं।
सुन्दरि! इन सबको क्रमशः देखकर तुम दिव्य भास्कर-संहिता का तथा सर्वबीज स्वरूप आयुर्वेद का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त कर लोगी। आयुर्वेद के अनुसार रोगों का परिज्ञान करके वेदना को रोक देना– इतना ही वैद्य का वैद्यत्व है। वैद्य आयु का स्वामी का स्वामी नहीं है– वह उसे घटा अथवा बढ़ा नहीं सकता। चिकित्सक आयुर्वेद का ज्ञाता, चिकित्सा की क्रिया को यथार्थरूप से जानने वाला धर्मनिष्ठ और दयालु होता है; इसलिये उसे ‘वैद्य’ कहा गया है।
दारुण ज्वर समस्त रोगों का जनक है। उसे रोकना कठिन होता है। वह शिव का भक्त और योगी है। उसका स्वभाव निष्ठुर होता है और आकृति विकृत (विकराल)। उसके तीन पैर, तीन सिर, छः हाथ और नौ नेत्र हैं। वह भयंकर ज्वर काल, अन्तक और यम के समान विनाशकारी होता है। भस्म ही उसका अस्त्र है तथा रुद्र उसके देवता हैं। मन्दाग्नि उसका जनक है। मन्दाग्नि के जनक तीन हैं– वात, पित्त और कफ। ये ही प्राणियों को दुःख देने वाले हैं।
वातज, पित्तज और कफज– ये ज्वर के तीन भेद हैं। एक चौथा ज्वर भी होता है, जिसे त्रिदोषज भी कहते हैं। पाण्डु, कामल, कुष्ठ, शोथ, प्लीहा, शूलक, ज्वर, अतिसार, संग्रहणी, खाँसी, व्रण (फोड़ा), हलीमक, मूत्रकृच्छ्र, रक्तविकार या रक्तदोष से उत्पन्न होने वाला गुल्म, विषमेह, कुब्ज, गोद, गलगंड (घेंघा), भ्रमरी, सन्निपात, विसूचिका (हैजा) और दारुणी आदि अनेक रोग हैं। इन्हीं के भेद और प्रभेदों को लेकर चौंसठ रोग माने गये हैं। ये चौंसठ रोग मृत्युकन्या के पुत्र हैं और जरा उसकी पुत्री है। जरा अपने भाइयों के साथ सदा भूतल पर भ्रमण किया करती है।