ये सब रोग उस मनुष्य के पास नहीं जाते, जो इनके निवारण का उपाय जानता है और संयम से रहता है। उसे देखकर वे रोग उसी तरह भागते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर साँप। नेत्रों को जल से धोना, प्रतिदिन व्यायाम करना, पैरों के तलवों में तेल मलवाना, दोनों कानों में तेल डालना और मस्तक पर भी तेल रखना– यह प्रयोग जरा और व्याधि का नाश करने वाला है। जो वसन्त-ऋतु में भ्रमण, स्वल्प मात्रा में अग्नि सेवन तथा नयी अवस्था वाली भार्या का यथा समय उपभोग करता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती। ग्रीष्म-ऋतु में जो तालाब या पोखरे के शीतल जल में स्नान करता, घिसा हुआ चन्दन लगाता और वायु सेवन करता है, उसके निकट जरा-अवस्था नहीं जाती।
वर्षा-ऋतु में जो गरम जल से नहाता है, वर्षा के जल का सेवन नहीं करता और ठीक समय पर परिमित भोजन करता है, उसे वृद्धावस्था नहीं प्राप्त होती। जो शरद्-ऋतु की प्रचण्ड धूप का सेवन नहीं करता, उसमें घूमना-फिरना छोड़ देता है, कुएँ, बावड़ी या तालाब के जल में नहाता है और परिमित भोजन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं फटकने पाती। जो हेमन्त-ऋतु में प्रातःकाल अथवा पोखरे आदि के जल में स्नान करता, यथासमय आग तापता, तुरंत की तैयार की हुई गरम-गरम रसोई खाता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती है। जो शिशिर-ऋतु में गरम कपड़े, प्रज्वलित अग्नि और नये बने हुए गरम-गरम अन्न का सेवन करता है तथा गरम जल से ही स्नान करता है, उसके समीप वृद्धावस्था की पहुँच नहीं होती।
जो तुरंत के बने हुए ताजे अन्न का, खीर और घृत का तथा समयानुसार तरुणी स्त्री का उचित सेवन करता है, वृद्धावस्था उसके निकट नहीं जाती। जो भूख लगने पर ही उत्तम अन्न खाता, प्यास लगने पर ठंडा जल पीता और प्रतिदिन ताम्बूल का सेवन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं पहुँचती। जो प्रतिदिन दही, ताजा मक्खन और गुड़ खाता तथा संयम से रहता है, उसके समीप जरावस्था नहीं जाती है।
जो मांस, वृद्धा स्त्री, नवोदित सूर्य तथा तरुण दधि (पाँच दिन के रखे हुए दही)– का सेवन करता है, उस पर जरावस्था अपने भाइयों के साथ हर्षपूर्वक आक्रमण करती है।