नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
यह व्यापक, एक, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन सामान्य चेतन ब्रह्म है, ऐसे भ्रम में मत पड़िये। क्योंकि सामान्य चेतन में तो हृदय-हृदयस्थ का भेद नहीं है। यह है हृदयस्थ-अन्तर्यामी और प्रभु है- सर्वसमर्थ है; किन्तु इसके हृदय में रहते हुए भी सब जीव दीन हैं, दु:खी है, क्योंकि यह अविकृत है। इसमें अपनी ओर से कोई क्रिया नहीं है। न क्रूरता, न कठोरता। यह अविकारी तभी तक अविकारी है, जब तक आप इसे ऐसा रहने देते हो। आप इससे तटस्थ हो तो यह भी आपसे तटस्थ 'भर्त्ता-भोक्ता' बना बैठा है। इसका स्वभाव है-
अत: जब आप इसकी ओर देखने लगते हो, इससे अपेक्षा करते हो तो यह आपसे तटस्थ नहीं रह सकता।
क्षर से-विनाशी से वह अतीत है, परे हैं; किन्तु अक्षर से परे कैसे होगा? अक्षर से उत्तम है। वह अक्षर का सखा है, किन्तु वरिष्ठ सखा है। श्रुति ने कहा-
जो इस पुरुषोत्तम को जान लेता है, वह असम्मूढ़ है। 'अहंकार विमूढात्मा' वह नहीं रहा। अत: 'कर्ताऽहं' भी वह नहीं मानता। वही सर्वविद है। अब वह सर्वभाव से उस पुरुषोत्तम का ही भजन करता है। सर्वभाव से भजन- यह भागवत धर्म की विशेषता है। जब 'अहं कर्त्ता' नहीं रहा तो मन-इन्द्रियों की सब क्रियाओं का कर्त्ता कौन? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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