नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
सब भाव उसी अन्तर्यामी के। सब भावों का वह संचालक और भोक्ता तो वह महेश्वर है ही। अत:-
जो कुछ इन्द्रियों से, मन-बुद्धि से करते हो, जो भोगते हो, जो यज्ञ करते हो, जो स्वत्व-त्याग करते हो, जो जान-बूझकर कष्ट सहते हो, सब उसी सर्वसंचालक पुरुषोत्तम को समर्पित कर दो। 'यह करो, यह मत करो- यह शुभ- यह अशुभ।' इस प्रकार का उपदेश धर्मशास्त्र करता है और इसमें केवल मनुष्य का अधिकार है। लेकिन भागवत धर्म में प्राणिमात्र का अधिकार है और इसमें कर्म का निर्णय नहीं है। कर्ममात्र का निवेदन है-
यह जो अन्तर्यामी पुरुषोत्तम है, सर्वसंचालक, सर्वलोकमहेश्वर, यह सर्वसमर्थ, निखिल-दिव्यगुणक-धाम, अनन्त करुणावरुणालय, सविशेष-सगुण, इसके संकल्प से सृष्टि- कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड मूर्त होते हैं और अपने संकल्प से यह साकार नहीं हो सकता, ऐसा सोचना कितनी समझदारी होगी?
जिस-जिस भाव को आप समर्पित करते हो, उस-उसको वह स्वीकार करके आपके लिए वैसा ही बन जाता है। 'यह तो बना हुआ- कल्पित रूप हुआ?' एक वेदान्ती परिचित ने कहा। मैंने उनसे कहा- 'हानि क्या है? कल्पित ब्रह्माकार वृत्ति बनने पर जो कुछ होता है- कल्पित सगुण-साकार के भी अन्त:करण में आने पर वही हो सकता है, कम-से-कम इतना तो आपको स्वीकार करना ही चाहिये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18.61
- ↑ गीता 9.27
- ↑ श्रीमद्भागवत 3.9.11
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