नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. बुआ नन्दिनी-षष्ठी महोत्सव
नन्दन भैया ने वही बात कह दी जो मेरा हृदय मन्थन कर रही थी। मैं भी तो वहाँ से उठ आयी थी। मेरे भी उठ आने का वही कारण था। भैया ने कहा- 'नन्दिनी बहिन! हमारा यह नवयुवराज दुग्ध फेन से भी अधिक सुकुमार है। उसे वहाँ भूमि स्पर्श कराया जायगा, यह तो सोचकर ही यहाँ भी मेरा हृदय काँपता है। मैं इसे देख नहीं सकता।' ओह! वह उष: किरण में पंकज दल पर झिलमिल करती ओस विन्दु से भी कहीं अधिक सुकुमार इस सलोने शिशु अंक की शोभा! किञ्चिन्मात्र भी तो भूमिका स्पर्श कराने योग्य नहीं है वह। रो उठेगा इस स्पर्श की असह्य वेदना से- कैसे देखा जायगा ऐसा निष्ठुर दृश्य। कितना भी निर्मम कर्म हो- उसके मंगल के लिए महर्षि को, भैया को, भाभी को यह करना ही पड़ेगा। भूमि की पूजा होगी; किंतु धरा को पाटल दल से आच्छन्न नहीं रखा जा सकता, कोई आस्तरण नहीं। भूमि-स्पर्श में मध्य का व्यवधान नहीं ही होना चाहिए। भूदेवी अपने को सुकोमल ही कर सकती हैं, कोई व्यवधान वे भी प्रकट नहीं कर सकतीं। विधि-विधान सदा निष्ठुर होते हैं; किंतु इनका पालन तो करना ही पड़ता है। मेरे लिए भी असह्य है वह दृश्य। जानती हूँ कि वहाँ क्या हुआ होगा। मुझे कुवला भाभी ने न भी बतलाया होता तो जानती हूँ। भाभी ने कहा- 'ननदजी! तुम व्यर्थ भाग गयीं। महर्षि ने ही कह दिया कि लाल को भूमिका किञ्चित स्पर्शमात्र कराना है, भूमिपर रखना नहीं है; किन्तु तुम्हारा यह भतीजा अभी से बहुत चञ्चल लगता है। व्रजेश्वरी ने बहुत सम्हाल कर इसे उठाया। उनके कर कम्पित हो रहे थे, अत: बड़ी जेठानी ने सहारा दिया; किंतु लाल ने अपना दक्षिण चरण पता नहीं कैसे छिटका लिया और उसे भू-स्पर्श कराया नहीं गया। उसने स्वयं अपने उस पद से भूमि का स्पर्श किया। तत्काल ही भगवान भुवन-भास्कर एवं निशानाथ का स्तवन प्रारम्भ हो गया।' 'यह रोया नहीं?' मैंने पूछा भाभी से। 'यह तो अपने बड़े भाई को देखने में लगा था।' भाभी ने कहा- 'देखती ही हो कि दाऊ इसे अब क्षण भर को छोड़ना नहीं चाहता और महर्षि भी उसे दूर हटाने लगेगो तो मना कर देते हैं। दाऊ तो चाहता था कि उसके इस छोटे भाई को उसके सामने भूमि पर धर दिया जाय और वह इससे खेले! भगवान नारायण यह दिन भी शीघ्र दिखलावेंगे; किन्तु दाऊ कुछ कहने लगा था इससे आौर यह एकटक उसी की ओर देख रहा था।' |
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