नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. ललिता-वियोग-वर्णन
इसके विशाल लोचन सूखने का नाम ही नहीं लेते। शरीर में इतना स्वेद आता है कि वस्त्र अनेक बार बदलवाने पड़ते हैं। जैसे सम्पूर्ण मेद स्वेद बनकर बह गया। कदम्ब-पुष्प के समान कण्टकित काया-उत्थित रोम-रोम और चाहे जब अंग-अंग पीपल-पत्र के समान काँपने लगता है। यह मूर्छा अब आती ही रहती है। यह सब न हो तो चाहे जब उठ भागती है वन की ओर। दिन-रात किसी समय की सुधि नहीं। हम सखियों को भी कम पहिचानती है। वन के विषम, कुशकण्टक भरे पथ में कुञ्जों में पागल बनी पुकारती दौड़ती है- 'प्राणनाथ! प्रियतम!' बाबा बार-बार अश्रु भर लेते हैं। मैया हम सबकी मनुहार करती रहती हैं। उनकी यह हृदयनिधि- हमारी सर्वस्व, हम इसके चरणों को छोड़कर पृथक कैसे रह सकती हैं। हमें लज्जित करती है मैया की मनुहार। हमारी सबकी यही तो जीवन है। यह है तो हम हैं। अभी कल यह कानन में मूर्च्छित हो गयी। मैं कब गिरी- मुझे पता नहीं। विशाखा ने कहा था- 'ललिता! स्वामिनी गयीं! हाय, हमे सदा को छोड़ गयीं?' सुनने के पश्चात् क्या हुआ- मैं नहीं जानती। सुना पीछे कि चन्द्रावली जीजी आ गयीं। हम सब समझती थीं कि वे स्वामिनी से स्पर्धा रखती हैं; किंतु इस विपत्ति में तो वे स्नेहमयी सबको सहारा देने लगी हैं। कितनी अपार शक्ति है उनमें! उनके अन्तर में किसी-से कम दावानल दहकता होगा? लेकिन वे हैं कि अब भी सबके सामने हँस लेती हैं। कल कहीं से उन नवजलसुन्दर का चित्र उठा लायीं और हम सबको झकझोरकर, जल सिञ्चिन करके जगाया। स्वामिनी को सगी अनुजा के समान अंक में लेकर बोली- 'बहिन देख तो, यह कौन है? तनिक नेत्र तो खोल!' स्वामिनी ने तो नेत्र खोलते ही समझा कि वे हृदयहारी सचमुच ही आ गये। मान करके मुख फेर कर बैठ गयीं। हँसकर उन्हें चन्द्रावली जीजी ने हिलाया और बोली- 'बहिन! तू क्या हम सबको मार ही देना चाहती है? तू नहीं रहेगी तो वनमाली व्रज की ओर झाकेंगे भी नहीं। तू ही हम सबकी आशा है, हमारी प्राण है।' कितनी उमंग से, कितनी तन्मयता से, कितने प्यार से बनाया होगा वह चित्र उन्होंने। वह चित्र दे देने से जीवन दे देना कहीं अधिक सरल है, यह मैं समझती हूँ; किंतु कितनी महान हैं वे। बिना माँगे स्वयं मुझे दे गयीं- 'ललिते! तू इसे रख ले। मेरी इस बहिन को इसकी बहुत अधिक आवश्यकता है। इसे बचा किसी प्रकार। यह बची रहेगी तभी व्रज बचेगा।' स्वामिनी तो चित्र लेकर तन्मय हो गयीं। उसी की मनुहार, श्रृंगार में लग गयीं। सचमुच इस चित्र ने इनके कम-से-कम प्राण तो बचा लिये; किंतु इनका उन्माद? चाहे जब आतुर हो उठती हैं- 'सखि, वे आ गये! सब सखियों को बुला ले। शीघ्र मेरा श्रृंगार कर दे। त्वरा कर, वे कहीं रूठकर चले न जायँ।' |
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