नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. मैया यशोदा-सीमन्तन
महर भी कहते हैं- 'तुम्हारे शरीर से तो सब सदा ज्योत्स्ना झरती है।' भला इस वृद्धावस्था में यह रसिकता कहीं शोभा देती है; किंतु सब तो कहते हैं कि मुझमें पता नहीं कितना प्रकाश या तेज आ गया है। बहुत अटपटा लगता है मुझे। लेकिन इसका मैं क्या करूँ कि स्वप्न में ही नहीं, दिन में जागते भी मुझे देवता दीखते हैं। रोहिणी जीजी कहती थीं, तब मुझे विचित्र लगता था; किंतु व्रजपति कहते हैं कि उनके वे भाई वृष्णिवंशभूषण कोई बड़े योगीश्वर हैं। इसलिए रोहिणी जीजी भी योगीश्वरी अवश्य होंगी। उन्हें देवता, मुनि दीखें, प्रणाम करें तो आश्चर्य नहीं, किंतु ये अब मेरी वन्दना करते हैं, मुझे तो बहुत संकोच लगता है, जब सहसा ये तेजोमय देवता, मुनि चाहे जब प्रकट होकर स्तुति करने लगते हैं। दाऊ जीजी के उदर में था तब उन पर सुमन-वर्षा होती थी। घर सुरभि से भर-भर उठता था। अब वह सब अनेक गुणित होकर मेरे साथ होने लगा है। इतनी ही कुशल है कि जीजी के समय से सभी इन बातों के अभ्यस्त हो गये हैं, अन्यथा मैं तो आश्चर्य और संकोच से ही मर जाती। रोहिणी जीजी हँसती हैं। वे मुझे उठने भी नहीं देना चाहतीं। मैं कहती हूँ कि मेरा शरीर पहिले से भी सशक्त, स्वस्थ, हलका है तो वे कह देती हैं- 'तुमने भी तो मेरी बात नहीं सुनी थी। अब मेरी बारी है। चुपचाप पड़ी रहो और जो कहूँ, मान लिया करो।' वे बड़ी हैं। उनके पुण्यपद पधारे इस गृह में तो यह सौभाग्य का दिन भी आया। अन्यथा मैं तो वन्ध्या ही थी। गोपियाँ ठीक ही तो कहती हैं कि यह उनकी पद-रज पड़ने का प्रभाव है। अन्यथा भगवती पूर्णमासी ने तो मुझे सबसे पहिले आशीर्वाद दिया था; किंतु मैं वैसी ही रह गयी थी। दाऊ को उदर में लिए जीजी आयीं इस घर में तो भगवती के आशीर्वाद को भी उन्होंने सफल कर दिया। |
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