नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. दानवेन्द मय-अजगर उद्धार
'तू कौन है? इतना मोटा मलिन सर्प क्यों बना था? मेरे बाबा को तूने क्यों पकड़ा?' अपने सम्मुख दण्डवत पड़े विद्याधर की ओर साश्चर्य देखते श्रीव्रजराजकुमार किञ्चित सक्रोध बोले- 'उठ और शीघ्र भाग जा यहाँ से।' मैंने भी अञ्जलि बाँधकर मस्तक झुकाया- 'धन्य प्रभु! आपका यह बाल्यभाव भी अद्भुत है। आप तो ऐसे बोल रहे हैं, मानो आशंका है कि यह दिव्य पुरुष पुनः महासर्प बनकर किसी को पकड़ लेगा।' 'मैं सुदर्शन नामक विद्याधर हूँ।' वह पुरुष उठा। अञ्जलि बाँधकर, मस्तक झुकाकर काँपते स्वर में सविनय बोला- 'एक बार विमान से जा रहा था। बहुत सुन्दर था और अपने सौन्दर्य का गर्व बहुत था मुझे। नीचे अंगिरा गोत्र में उत्पन्न महर्षि अष्टावक्र कहीं जा रहे थे उनकी कुरूप काया और भचकते चलने की भंगी देखकर मैं अट्टहास करके हँस पड़ा।' 'तू कुटिल मेरा उपहास करता है?' ऋषि ने ऊपर देखा और क्रोध में आकर शाप दे दिया- 'मुझसे भी कुटिल एवं मन्दगति से चलने वाला महासर्प हो जा!' मैं तत्काल विमान से उतर कर उनके चरणों पर गिर पड़ा। उन करुणामय को मुझ पर दया आ गयी आशीर्वाद दे दिया- 'श्रीकृष्णचन्द्र का चरण स्पर्श पाकर तेरा सर्प योनि से- संसार से भी समुद्धार हो जायगा। मैं तब से यहाँ अम्बिका वन के अरण्य में रहता प्रतीक्षा कर रहा था। सायंकाल यहाँ इतने लोगों का आगमन हुआ। वन में बहुत समय से बुभुक्षित था। क्षुधा से व्याकुल सरकता रात्रि के अन्धकार में आया और जो पुरुष मुझे पहिले मिले, उनको आहार बनाने का प्रयत्न करने लगा।' उस पुरुष ने संक्षिप्त में अपना चरित सुना दिया। सब गोप आश्चर्यपूर्वक उसे देख रहे थे। 'आपके सुर-मुनीन्द्र पाद-पद्मों का स्पर्श पाया मैंने उन महर्षि की अनुकम्पा से। अन्यथा विद्याधर सुदर्शन को इन श्रीचरणों का स्पर्श तो सुदुर्लभ ही था।' उसने गद्गद कण्ठ प्रार्थना की- 'सर्वेश्वर! आपकी आज्ञा के अनुसार देवलोक जा रहा हूँ; किंतु इतनी कृपा करो कि जहाँ भी-जिस किसी भी योनि में रहूँ, आपके इन अरुण चरणों की स्मृति बनी रहे।' 'अच्छा! अब तुम जाओ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने गम्भीर स्वर में आदेश दिया। विद्याधर सुदर्शन इन श्यामसुन्दर की प्रदक्षिणा करके गगन में ऊपर पहुँचकर अदृश्य हो गया। 'बाबा! कल प्रदोष में मैंने पहिले भगवान पुरारि का पूजन किया था।' भोलेपन से नन्दनन्दन बोले- 'इसी से मेरे पाद-प्रहार से यह दुर्योनि में पड़ा प्राणी देवता हो गया।' इनका हास्य ही मोहिनी माया है। गोप इनके इन सस्मित कहे वचनों पर विश्वास कर लें तो क्या आश्चर्य। अब सबको प्रातःकालीन स्नान करके पुनः पूजन करना है। पाराण करेंगे ये प्रसाद से और तब वृन्दावन पधारेंगे। मैं इनके दर्शन प्राप्त कर परम कृतकृत्य हुआ। |
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